Book Title: Aadhunik Jain Kavi Author(s): Rama Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 7
________________ प्रकाशकीय 1 स्वर्गीय आचार्य पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदीने एक बार लिखा था - "जैन धर्मावलम्बियोंमें सैकड़ों सावृ-महात्मायों और हज़ारों विद्वानोंने ग्रंथ रचना की है । ये ग्रंथ केवल जैनवर्मसे ही सम्बन्ध नहीं रखते, इनमें तत्व- चिन्तन, काव्य, नाटक, छन्द, अलंकार, कथा-कहानी, इतिहास से सम्बन्ध रखनेवाले ग्रन्य हैं जिनके उद्धारसे जैनेतरजनोंकी भी ज्ञान-वृद्धि श्रीर ननोरंजन हो सकता है । भारतवर्ष में जैनवर्म ही एक ऐसा वर्म है, जिसके अनुयायी साधुनों और श्राचार्योंमेंसे अनेक जनोंने धर्म - उपदेशके साथ ही साथ अपना समन्त जीवन ग्रन्य-रचना और ग्रन्थसंग्रह में खर्च कर दिया है । इनमें कितने ही विद्वान वरसातके चार महीने बहुधा केवल ग्रन्थ लिखनेमें ही बिताते रहे है । यह उनकी इस प्रवृत्तिका ही फल है जो बीकानेर, जैसलमेर, नागोर, पाटन, दक्षिण आदि स्थानोंमें हस्तलिखित पुस्तकोंके गाड़ियों वस्ते ग्राज भी सुरक्षित पाये जाते हैं ।" ऐसे ही अनुपलब्ध अप्रकाशित ग्रन्थोंके अनुसन्धान, सम्पादन और प्रकाशनके लिए सन् १६४४ में भारतीय ज्ञानपीटकी स्थापना की गई थी । जैनाचायों और जैनविद्वानों द्वारा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश साहित्यका भंडार अनेक लोकोपयोगी रचनात्रोंसे श्रोतप्रोत हैं | हिन्दी - गुजराती, कन्नड़ श्रादिमें भी महत्त्वपूर्ण साहित्य निर्माण हुआ है । किन्तु जनसाधारणके श्रागे वह नही ग्रा सका है, यही कारण है कि अनेक ऐतिहासिक, साहित्यिक और श्रीलोचक साधनाभावके कारण जैनवर्मके सम्बन्धमें खते हुए 'उपेक्षा रखते हैं । और उल्लेख करते भी हैं, तो ऐसी मोटी और भद्दी भल करते हैं कि जनसाधारणमें बड़ी भ्रामक धारणाएँ फैलती रहती हैं । agandPage Navigation
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