Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ प्रवेश कवियोंका साम्प्रदायिक आधारपर वर्गीकरण करना गायद जातिविशेपके लिए गौरवकी बात हो, कविके लिए नहीं। जो कवि है, चाहे जहांका भी हो, उसकी तो जाति और समाज एक ही है 'मानव-समाज'। कविकी मुस्कानमें मानवताका वसन्त खिलता है और उसके आँसुओंमें विश्वका पतझड़ झरझराता है । यह सारा मानव-समाज हृदयके नाते एक ही है । अपनी माताके लिए जो श्रद्धा, पुत्रके लिए जो ममता, विछुट्टी हुई प्रेयसीके लिए जो विकलता और अपमानके लिए जो क्षोभ एक भारतीय किसानके हृदयमे उमड़ता है, वही लन्दनके सम्राट्के हृदयमें और वही उत्तरी ध्रुवके अन्तिम छोरपर बसनेवाले 'एस्कीमो के हृदयमें भी ! इस श्रद्धा, ममता, विकलता और क्षोभ आदिकी अनुभूतियोंको कवि शब्दोंस, चित्रकार तूलिकासे, गायक स्वरोंसे, मिल्पी छैनीसे और कलावित् अपने अङ्ग-प्रत्यङ्गकी क्रिया-प्रक्रिया द्वारा साकार रूप देता है। इस प्रकार साहित्य, सङ्गीत और कलाके उद्गम तथा उद्देश्यकी एकताके वीचमें मैं जो कवियोंको आधुनिकताकी सीमामें घेरकर 'जैनत्व'के वर्गमें विभक्त कर रही हूँ उसका उद्देश्य क्या है ? केवल यही कि इस पुस्तकको लिखते समय सारे साहित्यकी जिम्मेदारी अपने सिरपर लादनेसे वच जाऊँ और अपने परिश्रमका क्षेत्र छोटा कर लूं। दूसरे, जव कवि मानव-समाजका प्रतिनिधि है, तो उसे ढूंढकर मानव-समाजके सामने लानेका काम भी तो किसीको करना ही चाहिए। मैं अपनी जाति और समाजके सम्पर्कके द्वारा जिन कवियोंको जान सकी हूँ और जिन तक पहुंचना दुर्लभ है, मानवताके उन प्रतिनिधियोंको विशाल साहित्य-संसारके सामने ला रही हूँ। वे अपनी वात अव स्वयं ही आपसे कह देंगे।

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