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________________ दिगंबर जैन। (२६) मसालेदार ची में एक सय खाने में हमें जरा भी विषय में दो डाक्टरों की राय एकप्ती नहीं होती। संकोच नहीं होता, बल्कि उलटा ममा माता इसी तरह वही दवा जो किसी बिमारीके शुरू में है। यही वजह हैं कि इन भिन्न भिन्न गुणव- लाम करती है बाद को नुक्सान पहुंचा सकती भाववाले और बहुधा बेमेल पदार्थोके खानेसे है। ऐसी हालत में दवाओंके इस्तेमालसे किप्ती हमारा हाजिमा बिगड जाता है और उसे दुरु- निश्चत लामकी आशा करना बेकार है । इसके स्त करनेके लिये हमें नित नये चूर्गों और विपरीत हम प्राकृतिक उपचारोंपर हमेशा भरोहकीमों या डॉक्टरों के बहुमूल्य नुस्खोंकी जरूरत साकर सकते हैं। स्वामाविक नियम अचूक पडती है। ____ होते हैं और बीमारी की हालत बदलनेके हाथ । यदि हम उस विषय में जानवरोंसे कुछ शिक्षा साथ वह भी बदलते रहते हैं। किसी स्थानीय ले तो मालूम होगा कि जंगली जनवरों और पंडाके तात्कालिक कष्टको दवा देने में दवाओं का बहुधा हमारे घरेलु जानवर भी-जबतक कि इस्तेमाल बहुधा लामदायक होता है और बहुउनकी स्वामाविक स्वतन्त्रता छिन नहीं जाती तप्ती दशायें खासकर खनिन दवायें और अपनी तन्दुरुस्ती कायम रखने के लिये किसी वनस्पतिक दवाओं के सत इतने तेन और अस्वाडाक्टरकी सहायताके मुहतान नहीं होते । वे भाविक होते हैं कि उनके इस्तेमालसे निस्संदेह अपने खान रानमें स्वाभाविक नियमों के इतने हमारी तन्दुरुस्तीको नुक्सान पहुंचता है और पाबन्द होते हैं कि मनुष्यकी तरह आये दिन कभी जान जोखिममें पड़ जाती है। इसके उहे भांति भांतिके रोगों का सामना नहीं करना विपरीत किसीने यह तो कभी सुना न होगा पडता । इसी तरह मनुष्यों में भी यदि खने कि दवाइये हमारे शरीरकी किसी कमीको स्थाई पीनेके मामले में ठीक ठीक अहतियातका बर्ताव रूपसे पूरा करसकती हैं। पर स्वामाविक नियहोने लगे तो हमारी दशा बहुत जल्द सुधर मोंके अनुकूल चलनेसे यह अमीष्ट सिद्ध हो सकती है और हमारे बीच से बदहनमी, स्वाती, जाता है। पेचिश, सुखा, क्षयी, प्रभृति तरह तरहके रोग सत्र बात तो यह है कि हम प्रकृतिके कार्यो में पीडितोंकी संख्या भी बहुत घ. किती है। बेना दखल न दें तो वह बराबर हमारे जीवनके बीमारोंका मुकाबिछा केवल दवाओं के भरोसे प्रत्येक क्षण में हमारे शारीरिक सुधारका काम पर नहीं किया जासकता । जबतक खानेपीने चुपचाप बडी सरलतासे किया करती हैं और या तन्दुरुस्तीके अन्य साधारण नियमों के पाल. नये रंग और रेशे बनाती और इसी तरह बेकार नमें काफी अहतित न बर्ता जावेगा इस सम्ब- माद्दको बाहर नि- 'लती रहती हैं। कृति में न्धमें सफलता होना मुशिल है। मासर दवा- नया माद्दा पैदा करने की शक्ति है, दवामें नहीं। ओंके इस्तेमालसे लामके ब.ले ह नि होती है। आदमीका शरीर एक मोगन खानेवाला एनिन और अक्सर यह भी होत है कि एक दवाके समझना चाहिये, यह एंजिन तब ही ही ठक
SR No.543190
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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