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________________ ( २५ ) 2010 बाल - परिचर्या और औषधि सेवन से हानियां | दिगंबर जैन । केरल अस्मि पंनर, पोला और मुर्झाया हुआ चेहरा, पिके हुए गाळ, बैठी हुई आंखें, निल हुआ पेट और सुख टांगे दूरसे ही उनकी शोकश क अवस्थाका पता देती हैं । माता पिताका साथ उनकी प्रजननार्थ अवस्था और गर्भाधान, गर्भावस्था सरकार संस्कार बालककी और इस लेखक- युत डाक्टर गिरिवर सहाय । इस लेख में अनियमित आहार और औषधो पचार के बुरे परिणाम और मांडव भोजन (स्टाची फुड ) के दुष्प्रयोग दिखाने की चेष्टा की गई है। को! या आपने कभी विचरा शो जनक परिस्थितिके लिये उत्तरदायी ठह कि सभ्य समाज इतनी रोग- वृद्धि क्यों गये मारते हैं, वहां जन्म पाने पर बालकों दिखाई पडती है | मनुष्यबुद्ध और उनकी माताओं के आहार विहारका प्रभाव और घर संगृहीत के चरण पार भी बनाने या बिगाड़ने में कुछ ससे अधिक संपन्न और निरोग प्राणो कम नहीं पढा । बहुधा माता पिता अपने होना चाहिये था, न्तु वास्तव दशा इसके टोंक छोटी उम्र में ही मिठाई खिचाने लगते बिकुल विरत है । हनरों वर्षों से व्यासा है। उस अवस्था में मिठाईका सेवन करने से यिक विसों और भाइयोंने हमारे शारी उनका पाचन हमेशा के लिये बिगड़ जाता है । रिक कारोवा ठेका ले रखा है । वैद्यों और इसी तरह भांतभांतिके गरित्र पदार्थ और भाइयोंकी संख्या दिन-दिन ढो ही जाती मपाले भी उनके कोमल पाचन-संस्थान पर है। मर देखो उत्तरदायों के हार दिखाई बर बुरा प्रभाहते हैं उनको सदा देते हैं । यही गहरी अपघाय और जगह लिये अध्य रोगका शिकार बना देते हैं, जगह आप खुळते ते हैं, तो भी साथ में रोग फैट हो जाते हैं-तन्दुरुस्तीका जगह परीसरा प योग्य दीनाते कि आ.ल नव जानकारी एक पड़ी संख्या में ही विशाल काढके पाली जाती है, और हो शेष सभी उनका स्वस्थ्य और की जी संतो के कारण वह अतिही गांधी गोद सूती कर जाते हैं और जो बच मी जते तो उनके बिगडे - स्थपके सण माके लिये दुःखमय हो जाता है । प्रस्तुत लेखमें इसी हरविधिक विवेचना की गई है। सभ्यताकी उन्नति साथ मनुष् समाज के व्यंजनों में नई नई ई न दें और उनकी संख्या बढ़ती होती जाती है और हम एक साथ तरह तरहके मोननों का स्वाद लेने के लिये आदी हो गये हैं । दुष, कभी नहीं होता । देशके से पीडित हजारों बालों को चारों ओर देखते हैं तो क्लेमा कांप उठता है । उनका, शाक, भाजी, अन्न और तरह तरहकी शारीरिक संघटन
SR No.543190
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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