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________________ दिगंबर जैन । (२४) लाख (लाह)की उत्पत्तिमें घोर हिंसाके कार्य करते हैं उन भ्राताओंसे हमारा नम्र निवेदन है कि घृणित कार्यको घोर हिंसा। थोड़ेसे स्वार्थ के लिये त्याग दीजिये । वैरके दखत पर कार्तिक महीने में वीन लगा -सोनपाल, उपदेशक । या जाता है वैरकी डालीपर बहतसे जीव रहते नोट-हिंसाकारी लाख की चूड़ियोका रिवान हैं उस डालीको १ हाथ प्रमाण काट कर एक २ बंद होना चाहिये तथा दयावान श्रावकों को इस दखतपर १९-२० बी१२ टुकड़े रखते हैं उस हिंसाकारी व्यापारसे धन न पैदा करना चाहिये। टुकड़ेपरसे जीव वैरके दरखत पर चढ़ जाते हैं व ग्रन्थ मंगानेका सुभीता। कच्ची डालीका रस पीते हैं, जन्मते, मरते हैं, पर यदि आपको किसी भी जैन ग्रंथकी कर उस डालीपर चिपट जाते हैं इस तरह छ आवश्यकता हो तो सूरतके "दिगंबर महीनातक जन्मते मरते हैं। एक २ दखत परसे जैन पस्तकालय से हीमगाइये क्योंकि ॥s) आधमन पचीस सर 5॥५ लाहा उतरता है यहां सपी जैन पुस्तकालयोंमें मिलनेवाली पुस्तकें फिर इसी तरह कार लिखे अनुसार वैशाख मही मिलती हैं व कमसेकम पांच रुपयेकी पुस्तकें मगा. नेमें फिर वीन वोया जाता है, यह लाख सुवा- नेसे फी रुपया एक आना “कमीशन" मी म । यह जीव बहुत सुक्ष्म होते हैं १ तोळा दिया जाता है। इस पुस्तकालयका विस्तृत नवीन लाहमें असंख्य जीवों का मांस (कले।र) समझना सूचीपत्र छप रहा है जो आगामी अंकके साथ चाहिये। जिस वक्त लाख डालीरसे छुड़ाई न ती बांटा जायगा । है तो छुड़ानेवालोंके हाय रक्तसे काल होनाते हैं। सोलहकारण धर्म । लेकिन दाखकी उत्पत्ति बंल आशामके हमारे अमी ही नवीन छाकर दुसरीवार तय्यार हुआ माडवासी जनभाईयोंने बहुत जोरसे कर रखा है। है। इसवार इस सोलहकारवा कथा व सोलह बहतों ने त्याग दिया है बंगाल, आसाममें आकर भावनाओं के सोलह वैये भी बढ़ा दिये गये हैं। व यहां पर ऐसी प्रथा देखकर हमारा हृदय बहुत कुछ कढ़ाया घटाया भी गया है । की० ॥) कंगयमान होता है । इससे हमारा अपनी माता नित्यपूजा सार्थ मानियों बाईयोंसे नम्र निवेदन कि इसके चूड़े का इसमें नित्य पूना हिंदी भाषामें अनुवाद सहित पहराव अवश्य करके शीघ्र त्याग देना चाहिये । भी ही नवीन प्रकट हुई है। पृ. १२८ व मैं बहुत दुखके साथ लिखता हूं कि हमारे मु० आठ आने । बंगाल, भाशामके जैनीमाई लाखका व्यवसाय जैन नित्य पाठ संग्रह। विशेषकर करते हैं। व अपनी २ जमीनों में वेरके नामक १६ जैन स्तोत्रोंका गुटका जो अभी दर्खत हैं। लाखका माव ६०) ७.) रुपिया मन नहीं मिलता था फिर मिल रहा है। मू० माठ माने विकता है इससे यह माई लोमके वशीभूत होकर मैनेजर, दिगम्बरजैनपुस्तकालय-सूरत ।
SR No.543190
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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