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________________ १३०] अनेकान्त. [किरण ४ के उपभोगके लिये छोड़ दो। इस मनोवृत्तिसे न जन सन्तोष बनाम शौच गुणको अपना लें तो भ्रष्टाकेवल मनुष्य सुखी ही होगा, अपितु यशस्वी भी बनेगा चार, असन्तोष, वस्तुओंकी दुलभता आदि दोष, जो शौचगुणके अभिव्यक्त करने में भी वह अग्रसर होगा। आज देखने में आ रहे हैं, देशमें नहीं रहेंगे और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति भी प्राप्त हो सकती है, जब जनता मुसीबतों, कष्टों, परेशानियों और दुःखोंमें अन्तर और बाह्य दोनों प्रकार के परिप्रहको छोड़नेमें नहीं फंसेगी। समर्थ हो सकता है और 'परमेको मुनिः सुखी' इस निर्लोभवृत्तिसे जो अच्छे आचार तथा विचारोंका अवस्थाको प्राप्तकर सकता है। अआएव इस शौच धर्म- अंकुर उगेगा वह समयपर इतने प्रचर फलों एवं का पालन गृहस्थ और मुनि दोनों ही अपने २परिणामों विपल छाखासे सम्पन्न वृक्ष होगा, जिसके नीचे बैठ एवं परिस्थितियों के अनुसार कर सकते हैं। कर प्रत्येक मानव-जन आनन्द और परम शास्तिका जनधर्ममें शौचधर्मको बहुत ऊँचा स्थान दिया अनुभव कर सकता है। गया है। गंगा यमुना आदि नदियों या समुद्रादिम स्नान करनेसे यह धर्म प्राप्त नहीं होता। यह तो श्री समन्तभद्रविद्यालय, देहली निर्लोभ वृत्तिसे प्राप्त होता है। यदि हमारे भारतीय २६ अगस्त, १६५३ प्रार्जव [अजितकुमार जैन] हृदयके विचारों के अनुसार वाणी और शारीरिक कोकिलकण्ठी वाणीस अन्य व्यक्तिको अपने पंजे में व्यापारको यदि एक शब्द-द्वारा कहना हो तो वह शब्द फंसाकर वह नर-भेड़िया अपने उस हृदयमें भरे विष"आर्जव" है. ऋजुता या सरलता भी उसी के अपर- की बौछार करके उस व्यक्तिका अचेत-क्रियाशून्य कर नाम हैं। देता है। अपने स्वार्थ-साधनके लिये वह अन्य व्यक्तिका " चरित्रबलसे हीन व्यक्ति जिस तरह अपनी निब- सर्वनाश करते भी नहीं चूकता। प्रावरण डालने के लिये हिंसा, असत्य-भाषण, अपने कपटाचारसे वह अपने आपको मुलम्मेसे व्यभिचार आदि पापाचरण को अपनाता है उसी तरह भी अधिक चमकीला बनाता है, जिससे जनसाधारण वह आत्म-निबलताके कारण ही छल, फरेब, धोखा. उसे खरा सोना समझकर सोनेका मूल्य उसे दे डालता धडीको काममें लेता है । कपटाचार मनुष्य को बना. है, किन्तु उसको उस मूल्यकी हार्दिक वस्तु उस कपटीवटी रूपमें बदल देता है। वह जनताके लिये भयानक से नहीं मिल पाती, इस तरह वह जनताको बहुत क्षति वन्य पशुसे भी अधिक भयानक बन जाता है। पहुँचाता है। उस कपटीकी आदत यहाँ तक बिगड़ भेड़िया यदि बाहर से भेड़िया है तो अन्तरगसे भी जाती है कि साँप यदि बाहर टेढ़ा चलता है तो कम भेडिया ही है। उसको देखकर प्रत्येक अन्तु उसके से कम अपने बिल में घुसते समय तो सीधा ही चलता भयानक आक्रमणसे सुरक्षित रहनेका यत्न कर सकता है। अपने परिवारके व्यक्तियोंको भी धोखा देते हुए है, परन्तु कपटी मनुष्य ऐसा भयानक भेड़िया है कि वह नहीं चकता। उसके आक्रमणसे कोई भी जन्तु अपने आपको नहीं किन्तु मुलम्मा अपनी चमक आखिर कब तक बचा सकता। स्थिर रख सकता है, साधारणसा वातावरण हा वह दोखने में बहुत साधु नजर आता है, वाणी उसकी चमकको काला कर दता है, उस दशामें समस्त उसकी मिश्रोसे भी अधिक मीठी होतो हे परन्तु हृदय जगत उसका जघन्य मूल्य तुरन्त आंक लेता है और भयानक विषसे भरा हश्रा घड़ा होता है। अपनी फिर उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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