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________________ किरण ४ उत्तम तप । १३१ ठक ऐसा ही हाल कपटी मनुष्यका होता है, कपटी मदसे उन्हें घृणा होती है, वे किसीको प्रसन्न करनेके मनुष्यका कृत्रिम मायाजाल जब छिन्न भिन्न हो जाता लिये कुछ कार्य नहीं करते बल्कि आत्म-संतोषके लिए है तब उसका भयानक नंगा रूप जनताके सामने आते ही सब कुछ करते हैं। . हुए देर नहीं लगती। उस समय जनताकी दृष्टिसे भय तो उनके हृदयमें कभी उत्पन्न ही नहीं वह एक दम गिर जाता है और उसकी प्रतिष्ठा तथा होता । उन्हें अपने बचन पर पूर्ण विश्वास और अचल विश्वास सदाके लिये समाप्त हो जाते हैं । घरमें तो दृढ़ता रहती है, संसार उसके वचनको प्रामाणिक उस पर किसीका विश्वास रहता ही नहीं । समझता है । धार्मिक आचरणसे उनका सौन्दर्य नहीं जिस मनुष्यका विश्वास संसारसे उठ गया, एक बढ़ता बल्कि उनके कारण उस धमोचरणका स्वच्छतरहसे वह मनुष्य ही संसारसे उठ गया । क्योंकि रूप हो जाता है। जनतामें उसका सम्मान स्वयं बढ़ता विश्वासपात्रता ही जीवनका प्रधान चिन्ह है। चला जाता है। ___ कपटीका हृदय तो निर्भीक हो ही नहीं सकता, निश्छल व्यक्ति संसारको निर्भयता और मूलभूत क्योंकि सदा उसको अपनी बनावट-कलई खुल जानेका भय बना रहता है। " धार्मिकताका पाठ पढ़ाता है । उसका प्रत्येक शब्द उसका धर्माचरण भी निःसार, निस्तेज एवं उप- उसके हृदयसे निकलता है अतः दूसरे व्यक्तिके हृदयहासजनक होता है जनता उसके धार्मिक आचरण- को तुरन्त प्रभावित करता है, इसी कारण उसका को 'बगलाभक्ति' का रूप देकर अन्य धार्मिक व्यक्तियों वचन तेजस्वी, प्रभावशाली होता है । उसकी करनी के लिये भी अपनी वैसी ही धारणा बना लेती है। अन्य सज्जन व्यक्तियों के लये अनुकरणीय बन इस प्रकार छली-कपटी मनुष्य धार्मिक जगतमें महान जाती है। तभी तो कहा गया हैपापाचारी माना गया है। मनस्यन्यद् वचस्यन्यत कर्मण्यन्यद्धि पापिनाम । जो मनुष्य कपटाचार से दूर रहते हैं अपने मनो- मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ॥ विचारोंके अनुसार ही बोलते हैं तथा करते हैं, वे अर्थात्-कपटी मनुष्य पापी होते हैं और सरलव्यक्ति सदा बनावटसे दूर रहते हैं, चापलूसी, खुशा- चित्त व्यक्ति महात्मा हाते हैं। उत्तम तप (पी० एन० शात्री) इच्छाओंका रोकना तप है | तप जीवन-शुद्धिके यह मानव अनादि कालसे मोही होनेके कारण अमित लिये अत्यन्त आवश्यक है। बिना किसी तपश्चरणके इच्छाओंका केन्द्र बन रहा है। एक अभिलाषा अथवा प्रात्म-शुद्धिका होना नितान्त कठिन ही नहीं किन्तु अस- इच्छा पूरी नहीं हो पाती, तब तक दूसरी पा धमकती है। म्भव है। जिस तरह खानसे निकलने वाले सुवर्ण पाषाण- इस तरह जीवनके साथ इनका प्रतिसमय तांता लगा से प्राप्त सोनेको शुद्ध बनानेके लिये अग्निसंतापनादि रहता है। एक समयको भी इनसे छुट्टी नहीं हो पाती। प्रयोगों द्वारा सुवर्णकार उसे शुद्ध बनाता है। उक्त प्रक्रियाके इच्छाएँ अनन्त हैं और मानव जीवन सीमित अवस्थाको विना सोनेका वह शुद्ध रूप प्राप्त नहीं हो सकता, जिसे लिये हुए है अतः उन अनन्त इच्छाओंकी पूर्ति कैसे हो 'कंचन' या सौटंचका सोना कहा जाता है। ठीक उसी सकती है? यदि कदाचित् किसी अभिलषित इच्छाकी प्रकार अनादि कालसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय पूर्ति भी हो जाय तो तत्काल अन्य अनेक इच्छाएँ उत्पन्न और योग रूप परिणतिसे होनेवाले कर्मबन्धनसे प्रात्मा हो जाती हैं, ऐसी स्थितिमें इच्छाओंकी अपूर्ति सदा बनी मलिन हो रहा है-उसकी अशुद्धताको दूर करनेके लिए ही रहती है, इच्छाका नाम ही दुःख है। जिसकी जितनी तपश्चरण करना अत्यन्त जरूरी है। बिना उस प्रयत्नके इच्छाएं पूरी हो जाती हैं वह उतना ही अधिक लोकमें भारम-शुद्धि करना सम्भव नहीं जंचता सुखी माना जाता है। पर वास्तवमें इच्छा पूर्तिसे सुख 'इच्छांनिरोधस्तपः'-तत्त्वार्थसूत्रे गृपिच्छाचार्यः। नहीं मिलता, वह कोरा सुखाभास है-झूठा सुख है; Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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