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________________ किरण ४ ] वश्यक रोके हुए हैं यदि ये अपनी आवश्यकताके कपड़े बचाकर दूसरोंको दे दें तो वस्त्रका अकाल श्राज ही दूर हो जाय । श्ररे तुम दो सौ की साड़ी पहनकर निकलो और दूसरे के पास साधारणसा वस्त्र भी न हो तब देखकर उन्हें डाह न हो तो क्या हो ? शौच-धर्म शौचका सामान्य और सीधा अर्थ पवित्रता है । यह पवित्रता आत्मामें लोभ- कषायके अभाव में प्रकट होती है । यों तो आत्माकी पवित्रताके रोधक सभी कषाय और कम हैं, किन्तु लोभ- कषाय आत्मा की उस पवित्रताको रोकती है जो आत्माको मुक्तितक पहुँचाती है और मुक्ति में अनन्त काल तक विद्यमान रहती है । यही कारण है कि यथाख्यातचारित्र भी, जो प्रायः उक्त पवित्रतारूप ही है, लोभके अभाव में ही आत्रिभूत है । इस पवित्रताविशेषको शौचधर्म कहना उचित ही है । बात यह है कि लोभ आत्माके अन्य तमाम गुणों पर अपना दुष्प्रभाव डाल कर उन्हें मलिन बना देता है । सब पापों और दुर्गुणों का भी वह जनक है । लोभसे मन, वाणी तथा काय तीनों दूषित हो जाते हैं और उन तीनों का सम्बन्ध आत्माके साथ होने से आत्मा भी दूषित बन जाता है । अतः मन वाणी और कायको दूषित न होने देने के लिये यह आवश्यक है कि लोभ कषायसे बचा जाय । अर्थात् शौच-धर्म का पालन किया जाय । शौच धर्म एक स्वाभाविक गुण है जो प्रकट होते ही आत्मा के अन्य गुणों पर भी अपना चमत्कारपूर्ण असर डालता है । मन, वाणी और शरीर तीनों उसके सद्भाव में शुद्ध हो जाते हैं। कितना ही ज्ञान और कितना ही चारित्र क्यों न हो, इस गुणके अभाव मैं वे मलिन बने रहते हैं । Jain Education International शौच-धर्म (ले० पं० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य ) पाठकोंको उस ब्राह्मण विद्वानकी कहानी ज्ञात होगी, जिसने लोभमें आकर अपना पतन किया था । उसने अपने जाति-कुलका ख्याल रखा था और न [ १२६ लोग कहते हैं जियो और जीने दो, पर जैनधर्म कहता है कि न जियो और न जीने दो । संसारमें न स्वयं जन्म धारण करो और न दूसरेको करने दो । दोनों को मोक्ष हो जाय ऐसी इच्छा करो । ( सागर चातुर्मास में दिये हुए प्रवचन से ) अपने विशाल पाण्डित्यका भी विचार किया था। वेश्याके लोभ में फँसकर अपना सर्वनाश किया था। एक पात् साधु साधु होकर भी लोभ-पिशाचके वशीभूत होकर जीवनकी तपोमय साधनाको भी खो बैठा था । अतः आत्माको शौच धर्मके पालन द्वारा ही ऊँचे उठाया जा सकता है 1 आज संसारके व्यक्तियों में सन्तोष आ जाय, लोभकी मात्रा कम हो जाय, न्यूनाधिकरूपमें यह शौच - गुण समा जाय तो संसार तृष्णाकी भट्टीमें जलनेसे बच सकता है और सुख शांतिको प्राप्त कर सकता है । हैं परन्तु लोगों की इच्छाएँ असीमित हैं। यदि पदार्थोंविचारने की बात है कि लोकमें पदार्थ तो सीमित का बटवारा किया जाय तो सबको उनकी इच्छानुसार मिलना सम्भव नहीं है। इसलिये सन्तोष अथवा शौच ही एक ऐस वस्तु है जो आत्माको सुख व शांति प्रदान कर सकती है। इसी आशयसे एक विद्वानने कहा है आशागर्त्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथैव वो विषयैषिता ॥ अर्थात् प्रत्येक प्राणी की इच्छाओं का गड्डा इतना है कि उसमें समग्र विश्व परमाणुके बराबर है। ऐसी स्थिति में किसको क्या और कितना मिल सकता है ? अतः विषयोंकी इच्छा करना व्यर्थ है । जीवनको स्थिर और स्वस्थ रखने के लिये जितनी मावश्यकता हो उतनी वस्तुओं को रखो । शेषको दूसरों For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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