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________________ १२८] अनेकान्त [किरण ४ ___ यदि इसकी रक्षा चाहते हो तो क्रोध, लोभ, भय पण्डितजी धर्मके प्रभावका अनुभव करते हुए चले और और हास्यको छोड़ो। यही झूठ बोलनेके कारण हैं। इन उन चोरोंने इनके उन साथियोंको जो आगे चले गये थे पर विजय प्राप्त करो और साथमें इस बातका भी खयाल बुरी तरह पीटा तथा सब सामान छुड़ा लिया । समता रखो कि कभी मेरे मुंहसे उत्सूत्र-भागमके विरुद्ध वचन न परिणाम कभी व्यर्थ नहीं जाते । तत्वार्थ जप, तप और निकलें। अपने वचनोंकी कीमत अपने आप बनाई जा उसके फलमें विश्वास होना प्रास्तिक्य कहलाता है यदि सकती है। इन कार्यों में विश्वास न हो तो फोकटमें कष्ट सहन कौन अब यह 'पंचाध्यायी' है इसमें सम्यगर्शनका प्रकरण करें? दान करनेसे पुण्य होता है। आगामी पर्यायमें उसका चल रहा है । वास्तवमें पूछो तो सम्यग्दर्शन ही संसारकी अच्छा फल मिलता है। इसी विश्वास पर ही दान करते जड़ काटनेवाला है, जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया हों नहीं तो ५) दान कर देने पर १००) के १५) तो अभी उसका संसार नष्ट हुअा ही समझो आज सम्यग्दर्मनके ही रह जाते हैं। दान आदिसे ही प्रभावना होती है। अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणका वर्णन है । पर दुःख अभृतचन्द्र स्वामीने लिखा है किप्रहाणेच्छाको (दूसरोंके दुःख नाश करनेकी अभिलाषाको) आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव। अनुकम्पा कहते हैं। सम्यग्दृष्टि अपने सामने किसीको - दानतपाजनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः॥ .. दुःखी नहीं देख सकता। उसके हृदयमें सच्ची समता आ इन दिनोंमें सम्यग्दर्शनादि अापके हृदयमें उत्पन्न हुए जाती है, कंचन और काँचमें उनकी समता हो जाती है, समताका अर्थ यह नहीं कि उसे इन दोनोंका ज्ञान नहीं ही होंगे, तप कर हो रहे हों, पूजा खूब करते हों, यदि कुछ दान करने लगी तो उससे जैनधर्मकी क्या प्रभावना नहीं रहता यदि ज्ञान न रहे तो हम लोगोंसे भी अधिक अज्ञानी होगी। आप चतुर्दशीके दिन उपवास करोगे यदि उस हो जाय, पर ज्ञान रहते हुए भी वह हर्ष-विषादका कारण दिनका बचा हुआ अन्न गरीबोंको खिला दोगे तो तुम्हारी नहीं होता । सच्ची समता जिसे प्राप्त हो गई उसे कोई क्या हानि हो जायेगी। सब तुम्हारा यश गायेंगे और कष्ट नहीं दे सकता। प० देवीदासजीके जीवनकी एक कहेंगे कि जैनियोंके व्रत लगे हुए हैं इनमें यह गरीबोंका घटना है। उनके सामायिकका नियम था ये रास्ता चल भी ध्यान रखते हैं। आप लोग चुप रह गये इससे मालूम रहे हों जंगल हो चाहे पहाड़, यदि सामायिकका समय हो होता है कि पापको हमारी बात इष्ट है। जाय तो वे वहीं बैठ जाते थे। एक बार वे कुछ साथियोंके साथ घोड़ापर सामान लादे हुए जा रहे थे भयंकर जंगल एक बार एक राजाने अपनी सभाके लोगोंसे कहा था, शामका समय हो गया, वे वहीं ठहर गये सब गठरी कि दो शब्दों में मोक्षका मार्ग. बतलायो, नहीं तो कठोर उतारकर रख दी और घोड़ेको पास ही छोड़ दिया। दण्ड पावोगे । सब चुप रह गये किसीके मुखसे एक भी नाका बारेमा चल. शब्द नहीं निकल सका । एक वृद्ध बोला, महाराज आपके कर रुकेंगे पर यह नहीं माने । इन्होंने साफ कह दिया चोर । प्रश्नका उत्तर हो चुका । राजाने कहा कोई बोला है ही सब कुछ ले जायें. पर सामायिकका वख्त नहीं टाल नहीं उत्तर कैसे हो गया ? बुढने कहा श्राप प्रश्न करना सकते । ये सामायिक निश्चल होगये, चोर आये और जानते हैं पर उत्तर समझना नहीं जानते । देखो. सब इनकी गठरियाँ ले गये। वे अपनी सामायिक में ही मस्त शान्त हैं और शान्ति ही मोक्षका मार्ग है। यह सब लोग रहें । कुछ दूर जाने पर चोरोंके मनमें पाया कि हमने अपनी चेष्टासे बता रहे हैं। उसकी चोरी व्यर्थ की, वह बड़ा शांत अादमी हैं उसने इसी प्रकार आप लोग भी चुप बैठे हैं मालूम होता एक शब्द भी नहीं कहा। सब लौटे और उनकी गठरियाँ है श्राप अवश्य इस बात का खयाल रक्खेंगे । यहाँ पाँच वापिस दे गये, अब तक इनका सामायिक पूरा हो चुका सौ सात सौ घर जैनियों के हैं यदि प्रतिदिन प्राधा श्राधा था. चोरोंने कहा कि आपकी शांतवृत्ति देखकर हम लोग की सेर अन्न हर एकके घरसे निकले तो एक हजार प्रादमियोंहिम्मत आपकी गठरियाँ ले जानेकी नहीं हुई । श्राप का पालन अनायास होजाय । पर उस ओर ध्यान नाय खुशीसे जाबो कहकर उन्होंने उनका घोड़ा लाद. दिया। तब न । एक-एक औरत अपने पास पचासों कपड़े अना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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