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________________ किरण २] लिए प्रत्येक मनुष्यका यह श्रावश्यक कर्त्तव्य है कि अनर्गल उपभोग में कारणभूत अन्तःकरण में विद्यमान भोगोपभोग सम्बन्धी लालसाओंको समूल नष्ट कर दे और ऐसे भोगोपभोगका संग्रह और उपभोग जरूरत के माफिक करने लग जाय जो भोगोपभोग जितनी मात्रा में उसकी प्रकृतिके विरुद्ध न होकर उसके जीवनको दीर्घायु, स्वस्थ और सुखी बनाने में समर्थ हों । दशधर्म और उनका मानव जीवनसे सम्बन्ध हम यह भी पहले कह आये है कि उपयुक्त खानसाथको समूल नष्ट कर देनेका नाम शौचधर्म और जरुरतके माफिक प्रकृतिके अनुकूल भोग सामग्रीका संग्रह और उपभोग करने का नाम संयम धर्म है। इस प्रकार जो मनुष्यं पूर्वोक चार धर्मोके साथ साथ शौच और संयम इन दोनों धर्मों को अपने जीवनका अंग बना लेता है वह जैन संस्कृतिके अनुसार सम्यग्दृष्टि अर्थात् विवेकी कहा जाने लगता है । सम्यग्दृष्टि मनुष्यका सर्वदा यही खयाल रहता है कि कौन वस्तु कहाँ तक उसके जीवन के लिए उपयोगी हैं और केवल इस खयालके आधार पर ही वह अपने जीवन निर्वाहके साधनों को जुटाता एवं उनका उपभोग किया करता है । वह जानता है कि भोजन, वस्त्र, मकान आदि पदार्थोंकी उसके जीवन के लिये क्या उपयोगिता हैं ? कहने का मतलब यह है कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य के अन्तःकरणमें भोग विलासकी भावना समाप्त हो जाती है केवल जीवन निर्वाहकी ओर ही उसका लक्ष्य रह जाता है । तप आदि धर्मचतुष्क और मुक्ति 4 इस प्रकार सम्बन्दष्टि मनुष्य उमा, मार्दव, सत्य शोच और संयम द्वारा अपने जीवनको दीर्घायु, स्वस्थ और सुखी बनाता हुआ जब यह सोचता है कि उसके जीवनका उद्देश्य आमाको पराधीनतासे छुड़ाकर निर्विकार और शुद्ध बनाना ही है तो वह इसके जिये साधनभूत तप, त्याग, अकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य इन चार धर्मोकी ओर अपना ध्यान दौड़ाता है वह जानता है कि आत्मा पराचीनवासे छुटकारा तभी पा सकता है जबकि उसकी स्वावलम्बन शक्तिका पूर्ण विकास हो जावे, अतः वह इसके लिये अपने जीवन निर्वाहकी आवश्यकता को क्रमशः कम करनेका प्रयत्न करने लगता है उसके इस प्रयत्नका माही उपधर्म है तथा अपने उस प्रयत्नमें सफलता प्राप्त Jain Education International [ ११७ करने पर जैसे जैसे उसकी स्वावलम्बन शक्तिका धीरेधीरे विकास होता जाता है वैसे वैसे ही वह अपने जीवन निर्वाहके साधनोंमें भी कमी करता जाता है जिसे त्याग धर्म बतलाया गया है । इस तरह वह सम्यग्दृष्टि मनुष्य अपने जीवन निर्वाहकी आवश्यकताओंको कम करके आत्माकी स्वावलम्बन शक्तिका अधिकाधिक विकास करता हुआ और उसीके अनुसार जीवन निर्वाहकी सामग्रीका त्याग करता हुआ अन्तमें ऐसी अवस्थाको प्राप्त कर लेता है जिस अवस्थामें उसके तृणमात्र भी परिग्रह नहीं रह जाता है तथा बरसात में, शर्दी में और गर्मी में सर्वदा अपनी नम्न दिगम्बर मुहमें ही वह बिना किसी ठौर के सर्वत्र विचरण करता रहता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्यका इस स्थिति तक पहुँच जानेका नाम ही अकिञ्चन्य धर्म है । सम्यग्दृष्टि मनुष्यको पूर्वोक्त प्रकारसे तप और त्याग धर्मो अंगीकार कर लेने पर जैन संस्कृतिके अनुसार लोग श्रावक, देशविरत या अणुवती कहने लगते हैं और प्रयत्न करते करते अन्तमें उक्त प्रकारका श्राकिञ्चन्य धर्म स्वीकार कर लेने पर उसे साधु, मुनि, ऋषि या महाव्रती कहने लगते हैं। धन्य धर्मका उड़ाके साथ पालन करने वाला वही सम्यग्दृष्टि मनुष्य विविध प्रकार के घोर तपश्चरणों द्वारा अपनी स्वावलम्बन शक्तिका विकास करते हुए उस स्थिति तक पहुंच जाता है जहाँ उसे न कभी भूख लगती है ? और न प्यास लगने की ही जहाँ पर गुंजाइश है। वह पूर्ण रूपसे आत्म-निर्भर हो जाता है। मनुष्य द्वारा इस प्रकारकी स्थितिको प्राप्त कर लेनेका नाम ही ब्रह्मचयधर्म है। ब्रह्मचर्य शब्दका अर्थ पूर्ण रूपसे आत्म निर्भर हो जाना है और जो मनुष्य पूर्णतः आत्म निर्भर हो जाता है उसे जैन संस्कृति के अनुसार, 'श्रर्हन्त' या 'जिन' कहा जाता है और इसे ही पुरुषोत्तम अर्थात् संपूर्ण मनुष्यों श्रेष्ठ माना गया है कारण कि मनुष्यका सर्वोत्कृष्ट जीवन यही है कि भोजनादि पर वस्तुओं के अवलम्बनके बिना ही वह जिन्दा रहने जग जाय जैन आगम ग्रन्थोंमें यह भी बतलाया गया है कि जो मनुष्य पूर्णरूप से आत्म-निर्भर होकर ग्रर्हन्त और पुरुषोत्तम बन जाता है वह पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ होता है और यही कारण है कि उसमें विश्व कल्याणमार्ग के सही उपदेश देनेकी सामर्थ्य उदित हो जाती है। इस प्रकार विश्वको कल्याण मार्गका उपदेश । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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