SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ ] अनेकान्त किरण ३ ये सब जीव एक दूसरे जीवके यथायोग्य उपकारी माने गये अनिवार्य आवश्यकता है । प्रामाणिक वर्तावका अर्थ यह हैं । यही कारण है कि जैन-ग्रन्थों में सबसे पहले हमें है कि हम कभी भी किसीको धोखेमें न डालें और हित "सत्वेषु मैत्रीम्" अर्थात् विश्वके समस्त जीवोंके प्रति कारी वर्तावका अर्थ यह है कि हम कभी भी किसीक मित्रता रखनेका उपदेश मिलता है । वास्तवमें जो जीव कष्ट न पहुँचावें और न किसी प्रकारसे कभी उसे अप हमारा उपकारक है उसकी रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य मानित ही करें । इस प्रामाणिक और हितकारी वर्ताव कर हो जाता है। यदि हम उसकी रक्षा नहीं करते हैं तो का नाम ही सत्यधर्म बतलाया गया है। हम दूसरोंके साथ इससे हमारे ही अहित होनेकी संभावना बढ़ जाती है ऐसा वर्ताव तभी कर सकते हैं जबकि हमारा अन्तःकरण इसलिये यदि हम अपना ही अहित नहीं करना चाहते हैं पवित्र हो अर्थात् हमारा अन्तःकरण सर्वदा दूसरोंको धोखा तो हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि हम अपने उप- देने, कष्ट पहुँचाने और अपमानित करनेकी दुर्भावनानं कारक दूसरे जीवोंकी रक्षाका पूरा पूरा ध्यान रक्खें, उन्हें से अलिप्त रहे और हम पहले बतला पाये हैं कि अपने अपना मित्र सममें। अन्तःकरण में दूसरोंको कष्ट पहुँचानेकी दुर्भावना उत्पन्न थोड़ी देरके लिए हम एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, न होने देनेका नाम समा धर्म, किसी भी प्रकारसे अपचतुरिन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय पशु प्रादिकी बात छोड़ भी मानित करने की दुर्भावना उत्पन्न न होने देनेका भाम दें केवल मनुष्योंको ही लें, तो भी यह मानी हई बात है मादव धर्म तथा किसी भी प्रकारसे धोखेमें न डालनेकी कि सामान्य तौर पर किसी भी मनुष्य का जीवन दूसरे दुर्भावना उत्पन्न न होने देनेका नाम मार्जव धर्म है। मनुप्यकी सहायताके बिना निभ नहीं सकता है । प्रायः इन चारों क्षमा, मादव, आर्जव और सत्य धर्मों के सभी विद्वान यह कहते आये हैं कि मनुष्य एक सामाजिक अभावमें हम पुरातन कालसे चले आ रहे कुटुम्ब, ग्राम प्राणी है अर्थात् संगठित समाज ही मनुष्यके सुखपूर्वक आदि संगठनोंको सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं इसलिये न जिन्दा रहनेका उत्तम साधन है अतः सुखपूर्वक जिन्दा तो हमारे जीवन में सुख ही नजर आ रहा है और न हम नना ही होगा किरित अपनेको सभ्य नागरिक कहलानेके ही अधिकारी हो समाज कैसे कायम रह सकता है? सकते हैं। इतना ही नहीं, ऐसा कहना भी अनुचित नहीं हमारे पूर्वज बहुत अनुभवी थे, उन्होंने कुटुम्बके रूपमें, होगा, कि जिसमें उक्त चारों बातें नहीं पायी जातो हैं, ग्रामके रूप में, देशके रूपमें और नाना देशोंमें सन्धि आदि वह मनुष्य अपनेको मनुष्य कहलानेका भी अधिकारी नहीं माना जा सकता है। अतः कहना चाहिये कि दूसरोंके के रूप में, मानव जातिके संगठन कायम किये, जो अब तक प्रति क्षित भावना और दूषित वर्ताव न करके हम अपनी चले आ रहे हैं परन्तु हमारे अन्तःकरणमें संगठनकी मनुप्यताकी ही रक्षा करते हैं। भावना नहीं रह जाने और एक मनुष्यका दूसरे मनुष्यके प्रत्येक मनुष्यको अपना जीवन दीर्घायु, स्वस्थ और प्रति अप्रामाणिक और अहितकर व्यवहार चालू हो जाने . सुखी बनानेके लिये यह भी सोचना है कि वह अन्तःकरणके कारण ये सब संगठन मृतप्राय हो चुके हैं इसलिये में उत्पन्न अगणित लालसाओंके वशीभूत होकर नाना प्रत्येक मनुष्यको यदि असमयमें ही जीवन समाप्त हो जाने प्रकारके प्रकृति विरुद्ध असोमित भोगोपभोगोंका जो संग्रह का भय बना रहे या जिन्दा रहते हुए भी उसका जीवन और उपभोग किया करता है इसमें से पहले तो वह दुःखी बना रहे तो इसमें श्राश्चर्यकी बात ही क्या है। भोगोपभोगोंके लिए ही काफी परेशान होता है और बादक्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य ये चार धर्म हमें इन में उनका अनर्गल उपभोग करके अपने शरीरको ही रुग्ण संगठनोंको कायम रखने में मदद पहुंचाते हैं अर्थात् जिन्दा बना लेता है जिसके कारण या तो उसका जीवन अल्परहने और अपने जीवनको सुखी बनानेके लिये हमें दूसरे काल में ही समाप्त हो जाता है अथवा औषधियोंके चक्करमनुष्योंके साथ प्रामाणिक और हितकारी वर्ताव करनेकी में पढ़कर कष्टपूर्ण जिन्दगी व्यतीत करनेके लिए उसे १-परस्परोपग्रहो जीवानाम् । (तत्वार्थ सूत्र अ.५ बाध्य हो जाना पड़ता है अतः जीवनसे इन बुराइयोंको सू० २१) दूर करने और उसे दीर्घायु, स्वस्थ और सुखी बनानेके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy