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________________ दशधर्म और उनका मानव जीवनसे सम्बन्ध ( पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य ) धर्मकी सामान्य परिभाषा धर्मके वारेमें यह बतलाया गया है कि वह जीवों को सुखी बनाने का अचूक साधन है और यह बात ठीक भी है अतः धर्म और सुखके बीच में अविनाभावी सम्बन्ध स्थापित होता है अर्थात् जो जीव धर्मात्मा होगा, वह सुखी अवश्य होगा और यदि कोई जीव सुखी नहीं है या दुःखी है तो इसका सीधा मतलब यही है कि वह धर्मात्मा नहीं है। बहुत से लोगोंको यह कहते सुना जाता है कि 'अमुक व्यक्ति बड़ा धर्मात्मा है फिर भी वह दुःखी है' इस विषयमें दो ही विकल्प हो सकते हैं कि यदि वह व्यक्ति वास्तवमें धर्मात्मा है तो भले ही उसे हम दुखी समझ रहे हों परन्तु वह वास्तव में दुखी नहीं होगा और यदि वह वास्तवमें दुःखी हो रहा है तो भले ही वह अपनेको धर्मास्मा मान रहा हो या दूसरे लोग उसे धर्मात्मा समझ रहे हों, परन्तु वास्तव में वह धर्मात्मा नहीं है । इस सचाईको ध्यान में रखकर यदि धर्मका लक्षण स्थिर किया जाय, तो यही होगा कि जीवकी उन भावनाथों और उन प्रवृत्तियोंका नाम धर्म है जिनसे वह सुखी हो सकता है शेष जीवकी वे सब भावनायें और प्रवृत्तियां अधर्म मानी जायगीं, जिनसे वह दुखी हो रहा है । दशधर्मो के नाम और उनके लक्षण जीवकी धार्मिक भावनाओं एवं प्रवृत्तियों को जैन संस्कृति के अनुसार निम्नलिखित दश भेदोंमें संकलित कर दिया गया है समा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग किञ्चन्य और ब्रह्मचर्यं । (१) मा किसी भी अवस्थामें किसी भी जीवको कष्ट पहुँचाने की दुर्भावना मनमें नहीं लाना । (२) मार्दव - किसी भी जीवको कभी भी अपमानित करनेकी दुर्भावना मनमें नहीं लाना । (३) आर्जव - कभी भी किसी जीवको धोखा देनेकी दुर्भावना मनमें नहीं लाना । Jain Education International (४) सत्य — किसी के साथ कभी अप्रामाणिक और अहितकर वर्ताव नहीं करना । (१) शौच भोगसंग्रह और भोगविलासकी लालसानका वशवर्ती नहीं होना । (६) संयम - जीवन निर्वाह के अरिरिक्त भोगसामग्रीका संग्रह और उपभोग नहीं करना । (७) तप - जीवन निर्वाहकी श्रावश्यकताओंको कम करने के लिए आत्माको स्वावलम्बन शक्तिको विकसित करनेका प्रयत्न करना । (८) त्याग - आत्माकी स्वावलम्बन शक्तिके अनुरूप जीवन निर्वाहकी आवश्यकताओंको कम करके जीवन निर्वाहके लिए उपयोगमें आने वाली भोग सामग्री के संग्रह और उपभोगमें कमी करना । (१) अकिञ्चन्य - आत्माकी स्वावलम्बन शक्तिका अधिक विकास हो जाने पर जीवन निर्वाहके लिये उपयोगमें आने वाली भोग सामग्री के संग्रहको समाप्त करके तृया मात्रका भी परिग्रह अपने पास न रखते हुए नग्न दिगम्बर मुद्राको धारण करना और अव्म कल्याणके उद्देश्य से केवल श्रयाचित भोजनके द्वारा ही शरीरकी रक्षा करनेका प्रयत्न करना तथा विधिपूर्वक भोजन न मिलने पर शरीर - का उत्सर्ग करनेके लिये भी उत्साहपूर्वक तैयार रहना । ( १० ब्रह्मचर्य - आत्मा की पूर्ण स्वालम्बन शक्तिका विकास हो जाने पर अपने को पूर्ण आत्मनिर्भर बना लेना, जहाँ पर भूख प्यास आदिकी बाधाओंका सर्वथा नाश हो जाने के कारण शरीर रक्षा के लिये भोजन । दिकी आवश्य कता ही नहीं रह जाती है । क्षमा यदि छह धर्म और मानव जीवन इन दश धर्मों में से आदिके क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच और संयम इन छः धर्मोकी मानव जीवनके लिये निवार्य आवश्यकता है इसका कारण यह है कि विश्व में जीवोंकी संख्या इतनी प्रचुर मात्रामें है कि उनकी गणना नहीं की जा सकती है इसलिये जैन संस्कृतिके अनुसार जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त बतला दी गई है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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