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________________ ११४ ] था, पर दही विलोती हुई स्त्रियोंकी वेणीकां इधर उधर घूमती हुई देखकर मालूम होता है कि मदन पुनः अपना प्रभाव विस्तार करता हुआ मानो तलवार चला रहा है । बेणी कृपाणके इष्टान्त रूप अनोखी सूझको देखकर कवियों ने इनका विरुद 'वेणीकृपाय' के नामसे प्रसिद्ध कर दिया। अनेकान्त महाराष्ट्र में आप राजाओंसे पूजित हुए और महाकविरूपमें ख्याति प्राप्त की, जिसे सुनकर विद्याप्रेमी गुर्जरेश्वर वीसलदेवने अपने प्रधान जलायें भेजकर अपनी राजधानी धवलक में बुलाया । जिस दिन आप सभामें उपस्थित हुए राजकवियोंने विविध विचित्र समस्यायें देकर आपकी कविप्रतिमाकी परीक्षा ली । प्रबंधकोष में कहा गया है कि इस विद्याविनोदमें राजसभा के लोग इतना काव्य- रसानुभव करने लगे कि सभासदों और राजाने उसदिनका भोजन भी नहीं किया। कवि अमरके काव्यरसके श्रास्वादसे मानों उनका उदर लबालब भर गया । १०८ समस्याओंकी पूर्ति करके आपने मंडली और राजाको चमकृत कर दिया। फिर तो राजसभामें आपका बढ़ा सम्मान होने लगा और इनके विशेष प्रभाव एवं समागम से बीसलदेव जैनधर्मका प्रेमी बन गया। प्रबन्ध कोश के अनुसार नृपति जैन मंदिरोंमें नित्य पूजा करने लगा था। एक बार राजा ने आपसे इनके कलागुण के सम्बन्ध में पूछा तो आपने अरिसिंह का नाम लिया। नृपतिने उसे बड़े सरकार के साथ बुलाया और उसकी काव्यप्रतिभा से प्रसन्न होकर ग्राम आदि भेंट किये। बीसदेवका समय सं० १३०० से १३२० तक का है। कई प्रबंधों में सं० १२३४ से ३१८ तक का भी लिखा है। इसलिये कवि अमरचन्दका समय भी यही सिद्ध होता है । जिस पद्मआय के यहाँ रहकर अपने 'सिसारस्वत' मंत्री आराधनाकी उसके कथनसे आपने 'पद्मानंद महाकाव्य ' बनाया । उपदेशतरंगिणीके अनुसार महामंत्री वस्तुपालको 'अस्मिन्नसारे संसार सारं सारं गलोचना । यत्कुति । प्रभवा एते वस्तुपाला भवादृशः।' इस श्लोकको सुनाकर चमस्कृत करने वाले कवि अमरचन्द ही ये पाटवके गड़ियावाड़ा के जैन मंदिर में आपकी मूर्ति अब भी विद्यमान है। जिसका लेख इस प्रकार है - "संवत् १३४६ चैत्र वदी ६ शनी वायटीय गच्छे श्री जिनदत्तसूरि शिष्य पण्डित Jain Education International | किरण ४ श्री अमरचन्द्रमूर्तिः पण्डितमहेन्द्र शिष्य-मदन चन्द्राख्येन कारिता शिवमस्तु " (प्राचीन जैन लेख संग्रह द्वितीय विभागे लेखांक ५२३) प्रस्तुत मूर्ति आपका स्वर्गवास सं० १२४७ के पूर्व ही हो चुका, सिद्ध होता है। आपके रचित ग्रन्थोंमेंसे 'बालभारत' प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसे निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित काव्यमाला में प्रकाशित किया जा चुका है। पद्मानंद काव्य आपकी कविप्रतिमा का अनुपम परिचय देता है। यह काव्य गायकवाड़ पीरियन्टल सिरीजसे प्रकाशित हो चुका है। 'काव्यकल्पलता' नामक काव्यशिक्षाका महत्वपूर्ण प्रम्ब चौखम्बा सिरीज, बनारससे प्रकाशित हो चुका है। इनके अतिरिक्त 'स्वादिशब्दसमुच्चय' नामक चौथे अंथको पंडित बाल चन्द भगवानदास गांध ने बहुत वर्षपूर्व प्रकाशित किया है। आपका 'इंदोरनावली प्रम्ब कई श्वेताम्बर ज्ञानभंडारोंमें प्राप्त है, परन्तु अभीतक प्रकाशित नहीं हुआ है। प्रबंधकोपमें उक्लेखित आपके कलाकलाप और सुक्तावली ग्रंथोंकी प्रतिका अभी किसी ज्ञानभंडारोंमें पता नहीं चला । अतः अन्वेषणीय है। सूक्तावली नामक ग्रंथोंकी कई प्रति ज्ञान भंडारोंसे प्राप्त होती है। संभव है, भली भांति जांच करने पर उनमें से कोई प्रति आपके रचित सूक्तावली की भी मिल जाय प्रवन्धकोशमें आपकी की हुई १०८ सम स्याओंकी पूर्तिका निर्देश करते हुए एक दो समस्यापूर्ति वाले श्लोक उद्धृत किये हैं। राजसभा में विद्याविनोद करते हुए समय-समय पर आपने ऐसे प्रासांगिक फुटकर श्लोक और भी रचे होंगे जो प्राप्त होने पर आपकी कवि प्रतिभा का अच्छा परिचय उपस्थित कर सकते हैं । सूक्तावली में सम्भव है कि आपके समस्या पूर्ति और श्लोकोंका संग्रह हुआ हो इसलिये इस ग्रन्थका महस्व और भी बढ़ जाता है । विद्वानोंका ध्यान कवि अमरचन्दके इन दोनों अनुपलब्ध ग्रंथोंकी शोधके लिये आकृष्ट किया जाता है । 1 फुटकर इस प्रकार 'वीतराग स्तवनम्' के रचयिता 'वेणीकृपाण ' विशेषण विभूषित महाकवि अमरचन्द्रसूरिका संक्षिप्त परिचय यहाँ उपस्थित किया गया है । कविका 'पद्मानंद 'काव्य' इस समय मेरे सम्मुख नहीं है। संभव है उसकी प्रस्तावनासे और भी कुछ विशेष ज्ञातव्यका पता चले । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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