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________________ ११५] देते हुए अन्तमें जब वह अपना शरीर छोड़ता है तो वह पुनः शरीर धारण नहीं करता है, केवल एकाकी आत्मरूप होकर सर्वदाके लिए अजर और अमर हो जाता है ऐसे श्रात्माको ही जैन मान्यता के अनुसार मुक्त, विदया परमब्रह्म कहा जाता है । मनुष्यका कर्तव्य ये दश धर्म किसी सम्प्रदाय विशेषकी बपौती नहीं है। धर्मका रूप ही ऐसा होता है कि वह सम्बद विशेषके दम्धनसे अलिप्त रहता है जीवनको सुखी बनानेकी अभिलाषा रखने वाले तथा ग्रामकल्यायके इच्छुक प्रत्येक मनुष्यका यह अधिकार है कि वह अपनी शक्ति और साधनोंके अनुसार उक्त प्रकारसे धर्म पालनमें अग्रसर हो । इस प्रकार मा मा चार्ज और सत्य ये चार धर्म यदि हमारे जीवन में उतर जांय तो हम सभ्य नागरिक रूपमें चमक सकते हैं और इन चारों धर्मोंके साथ साथ शौच एवं संयम धर्मं भी हमारे जीवनमें यदि श्रा जाते हैं। तो हमारा जीवन अनायास ही दीर्घायु, स्वग्य और मुखी बन सकता है। नवीन नवीन और जटिल रोगोंकी वृद्धि जो आजकल देखनेमें आ रही है उसका कारण हमारी अनगंज और हानिकर शाहार-विहार-सम्बन्धी प्रवृत्तियाँ ही तो हैं सब दुष्प्रवृतियोंके शिकार होते हुए भी हम । अपनेको सभ्य नागरिक तथा विवेकी और सम्यग्दष्टि मानते है वह आत्मवंचना नहीं है तो फिर क्या है ? हमारे शास्त्र हमें बतलाते हैं कि आजकल मनुष्य इतना क्षीण शक्ति हो गया है कि उसका मुक्ति का या पूर्ण आत्मनिर्भर बनने का स्वप्न पूरा नहीं हो सकता है परन्तु आवक और साधु बनने के लिये भी तप, त्याग और आकिञ्चन्य आन्य धर्म सम्बन्धी जो मर्यादायें निश्चित की कई हैं उनके दायरेमें रह कर ही हम आपकों और साधुग्रोंकी श्रेणीमें पहुँच सकते हैं । वस्त्रका त्याग करके नग्न दिगपरदेशका धारक साधु ठंड आदि वचतके लिये यदि पान आदिका उपयोग करता है तो उसमें साधुता कहाँ रह जाती है अतः साधुका वेश हमें तभी स्वीकार करना चाहिये जबकि वस्त्रादिके अभाव में शीतादिकी बाधा सहन करनेकी सामर्थ्य हमारे अन्दर उदित हो जाये इसी तरह श्रावक भी हमें तभी बनना चाहिए जबकि हमारे अन्दर अनेकान्त [ फिरण ! अपने जीवन निर्वाहके साधनोंको कम करनेकी शक्ति प्रगट हो जाये अपनी शक्ति को न तौल कर और अपनी कमजोरियोंको छुपा कर जो भी व्यक्ति आवक या साधु बनने का प्रयत्न करता है वह अपनेको परानके में ही गिराता है। इसलिये श्रावक और साधु बननेका प्रश्न हमारे लिये महत्वका नहीं है हमारे लिए सबसे अधिक महत्वका यदि कोई प्रश्न है तो यह सम्बष्टि (विवेकी) बनने का ही है जिससे कि हम अपनी जीवन यावश्य कताओंको ठीक ठीक तरहसे समझ सकें और उनकी पूर्ति सही तरीकेसे कर सकें। कारण कि हमारे जीवन निर्वाह की जितनी समस्यायें हैं उनको ही यदि हमने अपनी द से कर दिया तो फिर हमारा जीवन ही खतरे में पड़ सकता है इसलिये भले ही हम अपनी जीवन निर्वाहकी आवश्यकताओं को कम न कर सकें, तो चिन्ताकी बात नहीं है परन्तु असीमित के वशीभूत होकर हम अनगंज रूपसे अनावश्यक प्रवृत्तियाँ करते रहें, तो यह अवश्य ही चिन्तनीय समस्या मानी जायगी । Jain Education International आजकल प्रत्येक मनुष्य जब चारों ओर वैभवके चमत्कारोंको देखता है तो उनकी चकाचौंध में उसका मन डावांडोल हो जाता है और तब वह उनके आकर्षण बच नहीं सकता है और उसकी लालसायें वैभवके उन चमकारोंका उपभोग करने के लिए उमड़ पड़ती है और तब यह सोचता है कि जीवनका सब कुछ अानन्द इन्हींके उपभोगमें समाया हुआ है । आजकल प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसके पास ऐसा आलीशान मकान हो जिसमें वैभवकी सभी कक्षायें टिक रही हो, उसका भोजन और उसके वस्त्र अश्रुत पूर्व और अभूतपूर्व, दढ़ियासे बढ़िया मोटरकार हो, रेडियो हो और न मालुम क्या क्या हो, विश्वमें दावी हुई विषमताये मनुष्यकी जालसाओंको उभारने में कितनी अधिक सहायता की है यह बात जान कार लोगोंसे छिपी हुई नहीं है। जिनके पास ये सब साधन मौजूद है वे तो उनके भोग में ही अजमस्त हैं लेकिन जिनके पास इन सब साधनों की कमी है या बिल्कुल नहीं है वे भी केवल ईर्षा और डाहकी हो जिन्दगी व्यतीत कर रहे हैं वे भी नहीं सोच पाते कि भला इन वैभवके चमत्कारोंसे हमारे जीवन निर्वाहका क्या सम्बन्ध है ? हम मानते हैं कि जिनके पास समयकी कमी है और काम अधिक है उन्हें मोटरकी जरूरत है परन्तु सैर सपाटे For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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