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________________ अनेकान्त ४७८ ] [वर्ष -ह बाध्य होकर छोड़ दिया । जर्मनीने अपने नवयुवकोंसे इस संस्कृतिका प्रचार किया कि जर्मन एक आर्य रक्त है । वह सर्वोत्तम है । वह यहूदियोंके विनाशके लिये है और जगतमें शासन करनेकी योग्यता उसी में है । यह भाव प्रत्येक जर्मन युवकमें उत्पन्न किया गया। उसका परि म द्वितीय महायुद्ध के रूपमें मानवजातिको भोगना पड़ा और ऐसी ही कुसंस्कृतियोंके प्रचार से तीसरे महायुद्धकी सामग्री इकट्ठी की जा रही है । भारतवर्ष में सहस्त्रों वपसे जातिगत उच्चता-नीचता छुआछूत दासीदास प्रथा स्त्रीको पद दलित करनेको संस्कृतिका प्रचार धमके ठेकेदारोंने किया और भारतीय प्रजाके बहुभागको अस्पृश्य घोषित किया, स्त्रियोंको मात्र भोग विलास की सामग्री बनाकर उन्हें पशुसे भी बदतर अवस्था में पहुंचा दिया । रामायण जैसे धर्मग्रन्थ में 'ढोलगँवार शूद्र पशु नारी । ये सब ताड़नके अधिकारी ।" जैसी व्यवस्थाएँ दी गई ' और मानवजाति में अनेक कल्पित भेदोंकी सृष्टि करके एकवर्गके शोषणको शासनको विलासको प्रोत्साहन दिया, उसे पुष्पका फल बताया और उसके उच्छिष्ट कणोंसे अपनी जीविका चलाई । नारी और शूद्र पशुके समान करार दिये गए और उन्हें ढालकी तरह ताड़नाका पात्र बताया । इस धर्म व्यवस्थाको आज संस्कृतिके नामसे पुकारा जाता है जिस पुरोहितवगकी धर्मसे आजीविका चलती है उनकी पूरी सेना इस संस्कृतिकी प्रचारिका है । पशुको ब्रह्माने यज्ञके लिये उत्पन्न किया है अतः ब्रह्माजोके नियम के अनुसार उन्हें यज्ञमें झांका। जिस गांका रक्षा के बहाने मुसलमानोंको गालियाँ दी जाती हैं उन याज्ञिकोंकी यज्ञशाला में गामेधयज्ञ धमके नामपर बराबर होते थे। अतिथि सत्कारके लिये इन्हें गायकी बछियाका भर्ता बनाने में काइ सङ्कोच नहीं था । कारण स्पष्ट था ब्राह्मण ब्रह्माका मुख है, धर्मशास्त्रकी रचना उसके हाथ में थी । इस वर्ग के हित के लिये वे जो चाहे लिख सकते हैं। उनने तो यहाँ तक लिखनेका साहस किया है कि – “ब्रह्माजीने सृष्टिको उत्पन्न करके ब्राह्मणोंको सौंप दी थी अर्थात् ब्राह्मण इस सारी सृष्टिके ब्रह्माजीसे नियुक्त स्वामी हैं । ब्राह्मणोंको असावधानासे ही दूसरे लोग जगत्के पदार्थों के स्वामी बने हुए | यदि ब्राह्मण किसीको मारकर भो उसकी सम्पत्ति छीन लेता है तो वह अपनी ही वस्तु वापिस लेता है, उसकी वह लूट सत्कार्य है वह उस व्यक्तिका उद्धार करता है" । इन ब्रह्ममुखोंने ऐसी ही स्वार्थ पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ प्रचारित कीं। जिससे दूसरे लोग ब्राह्मणके प्रभुत्वको न भूलें। गर्भसे लेकर मरण तक सैकड़ों संस्कार इनकी आजीविका के लिये क़ायम हुए। मरणके बाद श्राद्ध वार्षिक त्रैवार्षिक आदि श्राद्ध इनकी जीविका आधार बने । प्राणियोंके नैसर्गिक अधिकारों को अपने आधीन बनानेके आधार पर संस्कृतिके नामसे प्रचार होता रहा है । ऐसी दशामें इस संस्कृतिका सम्यग्दशन हुए बिना जगत् में शान्ति और व्यक्तिकी मुक्ति कैसे हो सकती है। वर्ग विशेषकी प्रभुताके लिये किया जानेवाला यह विषैला प्रचार ही मानवजातिके पतन और भारतकी पराधीनताका कारण हुआ । आज भारतमें स्वातन्त्र्योदय होनेपर भी वही जहरीली धारा संस्कृतिरक्षा' के नाम पर युवकों के कोमल मस्तिष्कोंपर प्रवाहित करनेका पूरा प्रयत्न वही वर्ग कर रहा है। हिन्दी के रक्षा के पीछे वही भाव हैं। पुराने समय में इस वर्गने संस्कृतको महत्ता दी थी और संस्कृत के उच्चारणको पुण्य और दूसरी जनभाषा - अपभ्रंशके उच्चारणको पाप बताया था । नाटकों स्त्री और शूद्रोंसे अपभ्रंश या प्राकृत भाषाका बुलवाया जाना उसी भाषाधारित उच्चनीच भावका प्रतीक है । आज संस्कृत निष्ठ हिन्दीका समर्थन करनेवालोंका बड़ा भाग जनभाषाकी अवहेलनाके भावसे श्रोत-प्रोत है। अतः जबतक जगत् के प्रत्येक द्रव्यकी अधिकार सीमाका वास्तविक यथार्थ दर्शन न हो तब तक यह धाँधली चलती रहेगी। धर्मरक्षा, संस्कृति रक्षा, गौरक्षा, हिन्दीरक्षा, राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ, धर्मसंघ आदि बड़े-बड़े आवरण हैं । जैन संस्कृतिने श्रात्माके अधिकार और स्वरूपकी ओर ही सर्वप्रथम ध्यान दिलाया Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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