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________________ किरण १२ ] मानवजातिके पतनका मूल कारण-संस्कृतिका मिथ्यादर्शन [४७६ और कहा कि इसका सम्यग्दर्शन हुए बिना बन्धन-मोक्ष नहीं हो सकता। उसकी स्पष्ट घोषणा है १. प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है, उसका मात्र अपने विचार और अपनी क्रियाओंपर अधिकार है, वह अपने ही गुण-पर्यायका स्वामी है । अपने सुधार-बिगाड़का स्वयं जिम्मेदार है। २. कोई ऐसा ईश्वर नहीं जो जगतके अनन्त पदार्थोंपर अपना नैसर्गिक अधिकार रखता हो, उसका नियन्त्रण करता हो, पुण्य-पापका हिसाब रखता हो और स्वर्ग-नरकमें जीवोंको भेजता हो, सृष्टिका नियन्ता हो। ३. एक आत्माका दूसरी आत्मापर तथा जड द्रव्योंपर कोई स्वाभाविक अधिकार नहीं है । दूसरी आत्माको अपने आधीन बनानेकी चेष्टा ही अनधिकार चेष्टा है अतएव हिसा और मिथ्या दृष्टि है। ... ४. दूसरी आत्माएँ अपने स्वयंके विचारोंसे यदि किसी एकको अपना नियन्ता लोकव्यवहारके लिये नियुक्त करती या चुनती हैं तो यह उन आत्माओंका. अपना अधिकार हुआ न कि उस चुनेजानेवाले व्यक्तिका जन्मसिद्ध अधिकार । अतः सारी लोक-व्यवहारव्यवस्था सहयोगपर निर्भर है न कि जन्मजात अधिकारपर। . . ५. ब्राह्मण-क्षत्रियादि वर्ण-व्यवस्था अपने गुण-कर्मके अनुसार है जन्मसे नहीं। ' ६. गोत्र एक पर्यायमें भी बदलता है, वह गुण-कर्मके अनुसार है। ७. परद्रव्योंका संग्रह और परिग्रह ममकार और अहङ्कारका हेतु होनेसे बन्धकारक है। . ८. दुसरे द्रव्योंको अपने आधीन बनानेकी चेष्टा ही समस्त अशान्ति, दुःख, संघर्ष और हिंसाका मूल है। जहाँ तक अचेतन पदार्थोके परिग्रहका प्रश्न है यह छीन-झपटीका कारण होनेसे संक्लेशकारक है अतः हेय है। ६. स्त्री हो या पुरुष धर्ममें उसे कोई रुकावट नहीं। यह जुदी बात है कि वह अपनी शारीरिक मर्यादाके अनुसार ही विकास कर सकती है। १०. किसी वर्गविशेषका जन्मजात कोई धर्मका ठेका नहीं है । प्रत्येक आत्मा धर्मका अधिकारी है। ऐसी कोई क्रिया धर्म नहीं हो सकती जिसमें प्राणिमात्रका अधिकार न हो। ११. भाषा भावोंको दूसरे तक पहुंचानेका माध्यम है अतः जनताकी भाषा ही ग्राह्य है। १२. वर्ण, जाति, रङ्ग देश, आदिके कारण आत्माधिकारमें भेद नहीं है. ये सब शरीराश्रित हैं। १३. हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि पन्थ-भेद भी आत्माधिकारके भेदक नहीं हैं । आदि । १४. वस्तु अनेक धर्मात्मक है उसका विचार आदि उदार दृष्टि से होना चाहिये । सीधी बात तो यह है कि हमें एक ईश्वरवादी शासक संस्कृतिका प्रचार इष्ट नहीं है। हमें तो प्राणिमात्रको समुन्नत बनानेका अधिकार स्वीकार करने वाली सर्वसमभावी "संस्कृतिका प्रचार करना है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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