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________________ किरण ११ ] सन्मति - सिद्धसेनाङ्क [ ४३७ विचारों को भी प्रकट कर सकते थे, जिनके लिये ज्ञानोपयोगका प्रकरण होनेके कारण वह स्थल (सन्मतिका द्वितीय काण्ड ) उपयुक्त भी था; परन्तु वैसा न करके उन्होंने वहाँ उक्त द्वात्रिंशिका विरुद्ध अपने विचारोंको रक्खा है और इसलिये उसपर से यही फलित होता है। कि वे उक्त द्वात्रिंशिका के कर्ता नहीं हैं - उसके कर्ता कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहियें । उपाध्याय यशोविजयजीने द्वात्रिंशिकाका न्यायावतार और सम्मतिके साथ जो उक्त विरोध बैठता है उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा । यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्रुतकी अमान्यतारूप इस द्वात्रिंशिका के कथनका विरोध न्यायावतार और सन्मतिके साथ ही नहीं है बल्कि प्रथम द्वात्रिंशिकाके साथ भी है, जिसके 'सुनिश्चितं नः' इत्यादि ३० वें पद्यमें 'जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्रुषः' जैसे शब्दोंद्वारा अर्हत्प्रवचनरूप श्रुतको प्रमाण माना गया है । (५) निश्वयद्वात्रिंशिकाकी दो बातें और भी यहाँ प्रकट कर देनेकी हैं, जो सन्मति के साथ स्पष्ट विरोध रखती हैं और वे निम्न प्रकार हैं:“ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्युपायाः शिव हेतवः । अन्योऽन्य - प्रतिपक्षत्वाच्छुद्धावगम- शक्तयः || १ || " इस पद्यमें ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रको मोक्ष -हेतुओंके रूपमें तीन उपाय (मार्ग) बतलाया है - तीनोंको मिलाकर मोक्षका एक उपाय निर्दिष्ट नहीं किया; जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके प्रथमसूत्र में 'मोक्षमार्गः ' इस एकवचनात्मक पदके प्रयोग द्वारा किया गया है । अतः ये तीनों यहाँ समस्तरूपमें नहीं किन्तु व्यस्त (अलग अलग) रूपमें मोक्ष के मार्ग निर्दिष्ट हुए हैं और उन्हें एक दूसरे प्रतिपक्षी लिखा है। साथ ही तीनों सम्यक् विशेषणसे शून्य हैं और दर्शनको ज्ञानके पूर्व न रखकर उसके अनन्तर रक्खा गया है जो कि समूची द्वात्रिंशिकापरसे श्रद्धान अर्थका वाचक भी प्रतीत नहीं होता । यह सब कथन सन्मतिसूत्रके निम्न वाक्योंके विरुद्ध जाता है, जिनमें सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्रकी प्रतिपत्तिसे सम्पन्न भव्यजीवको संसारके दुःखोंका अन्तकर्तारूपमें उल्लेखित किया है और कथनको हेतुवाद सम्मत बतलाया है (३-४४) तथा दर्शन शब्दका अर्थ जिनप्रणीत पदार्थोंका श्रद्धान ग्रहण किया है। साथ ही सम्यग्दर्शन के उत्तरवर्ती सम्यग्ज्ञानको सम्यग्दर्शनसे युक्त बतलाते हुए वह इस तरह सम्यग्दर्शनरूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (२-३२, ३३): 'एवं जिणपण े सद्दहमाणस्स भाव भावे । पुरिसस्साभिणिबोहे दंसणसद्दो हवह जुत्तो ॥ २- ३२॥ सम्मायिमेण दंसणं दंसणे उभयणिज्जं । सम्मरागाणं च इमं ति अत्थ होइ उववरणं ॥ २-३३॥ भवियो सम्म सण-खाण - चरित्त - पडिवत्ति - संपण्णो । शियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स || ३-४४॥ निश्चयद्वात्रिंशिकाका यह कथन दूसरी कुछ द्वात्रिंशिकाओं के भी विरुद्ध पड़ता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं: : Jain Education International "क्रियां व संज्ञान-वियोग- निष्फलां क्रिया विहीनां च विबोधसंपदम् । निरस्यता क्लेश-समूह-शान्तये त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥ १-२६|| " " यथाऽगद-परिज्ञानं नालमाssमय - शान्तये । चारित्रं तथा ज्ञानं न बुद्धयध्य (व्य) वसायतः ॥१७- २७||” www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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