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________________ ४३८ ] अनेकान्त [ वर्ष ह इनमें से पहली द्वात्रिंशिकाके उद्धरणमें यह सूचित किया है कि 'वीरजिनेन्द्र ने सम्यग्ज्ञानसे रहित क्रिया (चारित्र) को और क्रियासे विहीन सम्यग्ज्ञानकी सम्पदाको क्लेशसमूहकी शान्ति अथवा शिवप्राप्तिके लिये निष्फल एवं असमर्थ बतलाया है और इसलिये ऐसी क्रिया तथा ज्ञानसम्पदाका निषेध करते हुए ही उन्होंने मोक्षपद्धतिका निर्माण किया है ।" और १७वीं द्वात्रिंशिका के उद्धरणमें बतलाया है कि 'जिस प्रकार रोगनाशक औषधका परिज्ञानमात्र रोगकी शान्ति के लिये समर्थ नहीं होता उसी प्रकार चारित्ररहित ज्ञानको समझना चाहिए—वह भी अकेला भवरोगको शान्त करनेमें समर्थ नहीं है ।' ऐसी हालत में ज्ञान दर्शन और चारित्रको अलग-अलग मोक्षकी प्राप्तिका उपाय बतलाना इन द्वात्रिंशिकाओं के भी विरुद्ध ठहरता है। “प्रयोग-विस्रसाकर्म तदभावस्थितिस्तथा । लोकानुभाववृत्तान्तः किं धर्माधर्मयोः फलम् ॥१६-२४|| आकाशमवगाहाय तदनन्या दिगन्यथा । तावप्येवमनुच्छेदात्ताभ्यां वाऽन्यमुदाहृतम् ॥१६-२५॥ प्रकाशवदनिष्टं स्यात्साध्ये नार्थस्तु न श्रमः । जीव-पुद्गलयोरेव परिशुद्धः परिग्रहः ॥ १६-२६॥” इन पद्योंमें द्रव्योंकी चर्चा करते हुए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योंकी मान्यताको निरर्थक ठहराया है तथा जीव और पुद्गलका ही परिशुद्ध परिग्रह करना चाहिए अर्थात् इन्हीं दो द्रव्योंको मानना चाहिए, ऐसी प्रेरणा की है । यह सब कथन भी सन्मतिसूत्र के विरुद्ध है; क्योंकि उसके तृतीय काण्डमें द्रव्यगत उत्पाद तथा व्यय ( नाश) के प्रकारों को बतलाते हुए उत्पादके जो प्रयोगजनित ( प्रयत्नजन्य) तथा वैखसिक (स्वाभाविक ) ऐसे दो भेद किये हैं उनमें वैसिक उत्पादके भी समुदायकृत तथा ऐकत्विक ऐसे दो भेद निर्दिष्ट किये हैं और फिर यह बतलाया है कि ऐकत्विक उत्पाद आकाशादिक तीन द्रव्यों (आकाश, धर्म अधम) में परनिमित्त होता है और इसलिये अनियमित होता है। नाशकी भी ऐसी ही विधि बतलाई है । इससे सन्मतिकार सिद्धसेनकी इन तीन अमूर्तिक द्रव्योंके, जो कि एक एक हैं, अस्तित्व-विषय में मान्यता स्पष्ट है । यथा: "उप्पा दुवियप्पो पोगजणिओ य विस्ससा चेव । तत्थ उपयोगजणि समुदयवायो अपरिसुद्धो ||३२|| साभावि वि समुदयकओ व्व एगत्तिय व्व होज्जाहि । आगासाईणं तिरहं परपच्चत्रोऽणियमा ||३३| विगमस्स विएस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदय विभागमेत्त श्रत्थंतर भावगमणं च ॥३४॥ " इस तरह यह निश्चयद्वात्रिंशिका कतिपय द्वात्रिंशिकाओं, न्यायावतार और सन्मतिके विरुद्ध प्रतिपादनोंको लिये हुए है । सन्मतिके विरुद्ध तो वह सबसे अधिक जान पड़ती है और इसलिये किसी तरह भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति नहीं कही जा सकती । यही एक द्वात्रिंशिका ऐसी है जिसके अन्तमें उसके कुर्ता सिद्धसेनाचार्यको अनेक प्रतियोंमें श्वेतपट (श्वेताम्बर) विशेषणके साथ 'द्वेष्य' विशेषण से भी उल्लेखित किया गया है, जिसका अर्थ द्वेषयोग्य, विरोधी अथवा शत्रुका होता है और यह विशेषण सम्भवतः प्रसिद्ध जैन सैद्धान्तिक मान्यताओं के विरोधके कारण ही उन्हें अपनी ही सम्प्रदाय के किसी असहिष्णु विद्वान द्वारा दिया गया जान पड़ता है। जिस पुष्पिकावाक्यके साथ इस विशेषण पदका प्रयोग किया गया है वह भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट पूना और एशियाटिक सोसाइटी बङ्गा Only Jain Education International #ों कारयेागा जाता हैFer Persorial & www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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