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________________ किरण ११ ] सन्मति - सिद्धसेनाङ्क [ ४२१ एए पु संग पाडिकमलक्खणं दुवेहं पि । तम्हा मिच्छादिट्ठी पत्तयं दो वि मूल-गया ॥ १३॥ ग य तइयो प्रत्थि यो ग य सम्मत तेसु पडिपुराणं । जेरण दुवे एगंता विभज्जमा रणा अगंता ॥ १४ ॥ इन गाथाओं के अनन्तर उत्तर नयोंकी चर्चा करते हुए और उन्हें भी मूलनयोंके समान दुर्नय तथा सुनय प्रतिपादन करते हुए और यह बतलाते हुए कि किसी भी नयका एकमात्र पक्ष लेने पर संसार, सुख, दुख, बन्ध और मोक्षकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, सभी नयोंके मिथ्या तथा सम्यक रूपको स्पष्ट करते हुए लिखा है तम्हा सब्वे वि या मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । Jain Education International अणोरपिस्सिा उरण हवंति सम्मत्त सब्भावा ॥ २१ ॥ 'अतः सभी नय - चाहे वे मूल या उत्तरोत्तर कोइ भी नय क्यों न हों—–जो एकमात्र अपने ही पक्ष के साथ प्रतिबद्ध हैं वे मिध्यादृष्टि हैं - वस्तुको यथार्थरूपसे देखने - प्रतिपादन करनेमें असमर्थ हैं । परन्तु जो नय परस्पर में अपेक्षाको लिये हुए प्रवर्तते हैं वे सब सम्यग्दृष्टि हैं - वस्तुको यथार्थरूपसे देखने - प्रतिपादन करने में समर्थ हैं । ' तीसरे काण्डमें, नयवादकी चर्चाको एक दूसरे ही ढङ्गसे उठाते हुए, नयवादके परिशुद्ध और अपरिशुद्ध ऐसे दो भेद सूचित किये हैं, जिनमें परिशुद्ध नयवादको आगममात्र अर्थका - केवल श्रुतप्रमाणके विषयका -- साधक बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योंकि परिशुद्धनयवाद सापेक्षनयवाद होनेसे अपने पक्षका — अंशोंका - प्रतिपादन करता हुआ परपक्षका — दूसरे अंशों- का निराकरण नहीं करता और इसलिये दूसरे नयवाद के साथ विरोध न रखनेके कारण अन्तको श्रुतप्रमाणके समग्र विषयका ही साधक बनता है । और अपरिशुद्ध नयवादको ‘दुर्निक्षिप्त' विशेषण के द्वारा उल्लेखित करते हुए स्वपक्ष तथा परपक्ष दोनोंका विघातक लिखा है और यह भी ठीक ही है; क्योंकि वह निरपेक्षनयवाद होनेसे एकमात्र अपने ही पक्षका प्रतिपादन करता हुआ अपनेसे भिन्न पक्षका सर्वथा निराकरण करता है - विरोधवृत्ति होनेसे उसके द्वारा श्रुतप्रमाणका कोई भी विषय नहीं सधता और इस तरह वह अपना भी निराकरण कर बैठता है। दुसरे शब्दों में यह कहना चाहिए कि वस्तुका पूर्णरूप अनेक सापेक्ष अंशों धर्मोसे निर्मित है जो परस्पर अविनाभाव सम्बन्धको लिये हुए है, एकके अभाव में दूसरेका अस्तित्व नहीं बनता, और इसलिये जो नयवाद परपक्षका सर्वथा निषेध करता है वह अपना भी निषेवक होता है- परके अभाव में अपने स्वरूपको किसी तरह भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता । नयवाद इन भेदों और उनके स्वरूपनिर्देशके अनन्तर बतलाया है कि 'जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने (अपरिशुद्ध अथवा परस्पर निरपेक्ष एवं विरोधी ) नयवाद हैं उतने परसमय - जैनेतरदर्शन - हैं । उन दर्शनोंमें कपिलका सांख्यदर्शन द्रव्याथिक नया वक्तव्य है । शुद्धोदनके पुत्र बुद्धका दर्शन परिशुद्ध पयोयनयका विकल्प है । उलूक अर्थात् करणाने अपना शास्त्र (वैशेषिक दर्शन) यद्यपि दोनों नयोंके द्वारा प्ररूपित किया है फिर भी वह मिध्यात्व है - अप्रमाण है; क्योंकि ये दोनों नयदृष्टियाँ उक्त दर्शनमें अपने अपने विषयकी प्रधानता के लिये परस्पर में एक दूसरेकी कोई अपेक्षा नहीं रखतीं।' इस विषय से सम्बन्ध रखनेवाली गाथाएँ निम्न प्रकार हैं परिसुद्धो यवाओ आगममेतत्थ साधको होइ । www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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