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________________ ४२० ] अनेकान्त [ वर्ष । प्रथमकाण्डमें दोनों नयोंके सामान्य-विशेष-विषयको मिश्रित दिखलाकर उस मिश्रितपनाकी चर्चाका उपसंहार करते हुए लिखा है दवडिओ त्ति तम्हा णत्थि णो नियम सुद्धजाईओ। 'ण य पज्जवडिओ णाम कोई भयणाय उ विसेसो ॥९॥ 'अतः कोई द्रव्यार्थिक नय ऐसा नहीं जो नियमसे शुद्धजातीय हो-अपने प्रतिपक्षी पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हुआ उसके विषय-स्पर्शसे मुक्त हो। इसी तरह पर्यायार्थिक नय भी कोई ऐसा नहीं जो शुद्धजातीय हो–अपने विपक्षी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हुआ उसके विषय-स्पर्शसे रहित हो। विवक्षाको लेकर ही दोनोंका भेद है-विवक्षा मुख्य-गौणके भावको लिये हुए होती है, द्रव्यार्थिकमें द्रव्य-सामान्य मुख्य और पर्याय-विशेष गौण होता है और पर्यायार्थिकमें विशेष मुख्य तथा सामान्य-गौण होता है।' इसके बाद बतलाया है कि-'पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमें द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य (सामान्य) नियमसे अवस्त है। इसी तरह द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमें पर्यायार्थिकनयका वक्तव्य (विशेष) अवस्तु है। पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमें सर्व पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते हैं और नाशको प्राप्त होते हैं। द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमें न कोई पदार्थ उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता है। द्रव्य पर्याय(उत्पाद-व्यय)के विना और पर्याय द्रव्य(ध्रौव्य)के विना नहीं होते; क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों द्रव्य-सत्का अद्वितीय लक्षण हैं। ये तीनों एक दूसरेके साथ मिलकर ही रहते हैं, अलग-अलगरूपमें ये द्रव्य (सत् )के कोई लक्षण नहीं होते और इसलिये दोनों मूल नय अलग-अलगरूपमें-एक दूसरेकी अपेक्षा न रखते हुएमिथ्यादृष्टि हैं। तीसरा कोई मूलनय नहीं है और ऐसा भी नहीं कि इन दोनों नयोंमें यथार्थपना न समाता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपको पूर्णतः प्रतिपादन करनेमें ये असमर्थ हों-; क्योंकि दोनों एकान्त (मिथ्यादृष्टियाँ) अपेक्षाविशेषको लेकर ग्रहण किये जाते ही अनेकान्त (सम्यग्दृष्टि) बन जाते हैं । अर्थात् दोनों नयोंमेंसे जब कोई भी नय एक दूसरेकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने ही विषयको सत्रूप प्रतिपादन करनेका आग्रह करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशमें पूर्णताका माननेवाला होनेसे मिथ्या है और जब वह अपने प्रतिपक्षी नयकी अपेक्षा रखता हुआ प्रवतेता है-उसके विषयका निरसन न करता हुआ तटस्थरूपसे अपने विषय (वक्तव्य)का प्रतिपादन करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशको अंशरूपमें ही (पूर्णरूपमें नहीं) माननेके कारण सम्यक व्यपदेशको प्राप्त होता है। इस सब आशयकी पाँच गाथाएँ निम्न प्रकार हैं दवट्टिय-वत्तव्वं अवत्थु णियमेण पजवणयस्स । तह पज्जवत्थ अवत्थुमेव दवट्टियणयस्स ॥१०॥ उप्पज्जति वियंति य भावा पञ्जवणयस्स । दवट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पण्णमविण8 ॥११॥ दव्वं पज्जव-विउयं दध्व-वियुत्ता य पज्जवा त्थि । . उप्पाय-ट्टिइ-भंगा हदि दवियलक्खणं एय ॥ १२॥ १ “पजयविजुद दव्वं दव्वविजुत्ता य पजवा णत्थि । दोरहं अणण्णभूदं भावं समण्णा परूविंति ॥१-१२॥" --पञ्चास्तिकाये, श्रीकुन्दकुन्दः । : सद्रव्यलक्षणम् ॥ २६ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् ॥३०॥ -तत्त्वार्थसूत्र अ०५। lain tucation inhemation, २ तीसरे काण्डमें गुणार्थिक (गुणास्तिक) नयको कल्पनाको उठाकर स्वयं उसका निरसन किया गया है www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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