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से प्रकाशित संजीवे पासबुक्स के पृ. 100 पर इसका जो अर्थ दिया है वह भी है उद्घृत
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"प्रसंग यह अवतरण संतकवि सुन्दरदास द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने जैन धर्मावलम्बियों के द्वारा किये गये ढोंगी कार्यों पर आक्षेप किया है।'
'व्याख्या संतकवि सुन्दरदास कहते हैं कि जो अरहन्त धर्म अर्थात् जैन धर्म को मानने वाले हैं, वे बहुत ही अज्ञानी हैं। वे सन्यास ग्रहण करने के लिये निर्दयतापूर्वक शरीर के या सिर के केशों को उखाड़ते हैं। यद्यपि वे भोजन करने में अत्यधिक नम्रता दिखाते हैं, पर वे ऐसा भोजन चाहते हैं जिससे उनकी वासना की तृप्ति हो। इस प्रकार उनका मन सांसारिक सुख में आसक्त रहता है लेकिन बाहर से वे दिखाने के लिये महान् संन्यासी बनने का घमंड व्यक्त करते हैं। उनकी दृष्टि सदा सुख-वैभव की ओर लगी रहती है तथा हृदय में हमेशा ढोंग भरा रहता है। इस कारण उनकी साधना भी अज्ञान पर ही आधारित है। संत सुन्दरदास कहते हैं कि मैं इस तरह के अज्ञान क उचित नहीं मानता हूँ। में दादूदयाल का शिष्य बनकर भ्रम या अज्ञान को समझ गया हूँ। इस कारण मैं अज्ञान से दूर रहकर अपना कार्य करता रहता हूँ।'
यह सत्य है कि संत सुन्दरदासजी ने केवल जैन धर्म के बारे में ही लिखा हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने अन्य धर्मों पर भी आक्षेप किये हैं। उनके पाखण्डों पर चोट की है, किन्तु जैन धर्म के बारे में उनकी टिप्पणी यथार्थ से परे है। हमें ऐसी सकारात्मक बातें लिखनी एवं पढ़ानी चाहिये जिससे समाज में आस्थामय वातावरण बनें। अंधविश्वास त्याज्य है, धार्मिक कट्टरता भी स्वीकार्य नहीं किन्तु धर्म के प्रति आस्था के क्षरण से नैतिक मूल्य स्खलित होते हैं। धार्मिक आस्था भारतीय समाज का वैशिष्ट्य है, जिसके अपने फायदे हैं। धर्मविहीन पश्चिमी समाज की सामाजिक स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अत: संपादक महोदय से हमारा अनुरोध है कि संत सुन्दरदासजी की साहित्यिक प्रतिभा का परिचय देने वाले किन्हीं अन्य छन्दों को संकलित करते तो बेहतर रहता। जैन परम्परा एवं मर्यादा के अनुरूप आचरण करने वाले किसी संत या श्रावक की चर्या यदि उन्होंने देखी होती तो शायद ऐसा न लिखते । मैंने 1999 में 'जैन धर्म के बारे में प्रचलित भ्रांतियाँ एवं वास्तविकतायें शीर्षक पुस्तक का संकलन कर प्रकाशित कराया था उसमें लगभग 30 पुस्तकों की त्रुटियों को संकलित किया था। उसके बाद भी अनेकों भ्रामक जानकारी देने वाली पुस्तकों की सूचनाएँ प्राप्त हुईं। मेरा पुनः एक बार सभी से आग्रह है कि जहाँ भी ऐसी पुस्तक मिले, हमें पुस्तक या सम्बद्ध अंश की छायाप्रति सहित सूचित करें। अपने-अपने स्तर पर सम्बद्ध लेखकों / प्रकाशकों से अनुरोधकर सुधार करायें। मौन रहकर उपेक्षा करने से लाखों बच्चों / पाठकों को भ्रामक जानकारी मिलती है।
अर्हत् वचन का प्रस्तुत अंक पारिवारिक प्रतिकूलताओं के कारण किंचित् विलम्ब से आपके हाथों में पहुँच रहा है किन्तु हमें संतोष है कि हम अक्टूबर-दिसम्बर की निर्धारित समयावधि में इसे प्रकाशित कर सके हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख Jaina Paintings in Tamilnadu में Dicritical Marks का प्रयोग नहीं किया जा सका है। इस लेख के साथ चित्र भी उपलब्ध नहीं हो सके। आगामी अंक 13 (1) जनवरी 2001 में ही आपको उपलब्ध हो जायेगा, एतदर्थ हम आशान्वित हैं। इस अंक के साथ हम आपको अर्हत् वचन के 12 वर्षों में प्रकाशित आलेखों की सूची भी प्रकाशित कर रहे हैं। अर्हत् वचन का 59 वाँ अंक 13 (2), अप्रैल 2001 अंक होगा । सुयोग से अप्रैल से ही भगवान महावीर का 2600 वाँ जन्मोत्सव वर्ष भी प्रारम्भ हो रहा है, अतः हम 50 वें पुष्प को विशेषांक के रूप में प्रकाशित करना चाहते हैं। इस विशेषांक की रूपरेखा के निर्धारण हेतु आपके सुझाव 15 जनवरी 2001 तक सादर आमंत्रित हैं। आपके बहुमूल्य सुझाव हमारे मार्गदर्शक होंगे। आप एतदर्थ अपने मौलिक शोधपूर्ण / सर्वेक्षणात्मक आलेख भी 31 जनवरी 2001 तक प्रेषित कर सकते हैं।
एक बार पुन: मैं कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ निदेशक मण्डल, अर्हत् वचन सम्पादक मण्डल एवं ज्ञानपीठ में अपने सहयोगी डॉ. प्रकाशचन्द जैन, डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज' एवं श्री अरविन्दकुमार जैन के प्रति पत्रिका के सम्पादन, प्रकाशन एवं वितरण कार्य में प्रदत्त सहयोग के लिये आभार ज्ञापित करता हूँ। माननीय लेखक एवं सुधी पाठक भी बधाई के पात्र हैं।
डॉ. अनुपम जैन
अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000
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