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सम्पादक की कलम से अर्हत् वचन
सामयिक सन्दर्भ (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
ईसवी सन् के 2000 वर्ष पूर्ण होकर तीसरी सहस्राब्दी के प्रारम्भ की
बेला में मैं आप सबका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। विश्व समुदाय में आज ईसवी सन् सर्वाधिक प्रचलित है अत: भारत सहित सम्पूर्ण विश्व इस नववर्ष को अधिक उत्साह से मना रहा है। मनाने की सबकी अपनी-अपनी रीतियाँ हैं, किन्तु मूल तत्त्व है मन में उत्साह एवं उमंग का संचार तथा कुछ नया करने की तमन्ना। जैन विद्याओं के अध्ययन/अनुसंधान में संलग्न हम और आप सबकी एक प्रमुख चिन्ता है जैन धर्म/संस्कृति का संरक्षण, तथ्यों की पुनस्र्थापना एवं अनर्गल बातों का प्रचार रोकना। इसी पुनीत कार्य को अंजाम देने हेतु 12 मार्च 1996 को कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर के प्रांगण में गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने भगवान ऋषभदेव जन्म जयन्ती महामहोत्सव का दीप प्रज्ज्वलित कराया था। सौभाग्य से इस दीप का प्रकाश आज चतुर्दिक फैल रहा है। समाज के लगभग सभी संत महात्मा इस कार्य में अपना मंगल आशीर्वाद एवं क्रियात्मक सहयोग दे रहे हैं। राष्ट्रसंत आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज ने राजनेताओं को जैनधर्म के बारे में अनर्गल बातों को अविलम्ब पाठ्यपुस्तकों से हटाने के स्पष्ट निर्देश दिये हैं। संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज भी भगवान ऋषभदेव की अहिंसा के प्रचार एवं पशुहत्या को रोकने हेतु सतत् प्रयत्नशील हैं। वैज्ञानिक धर्माचार्य श्री कनकनन्दिजी महाराज एक अभियान चलाकर पाठ्यपुस्तकों की विसंगतियों को दूर कराने हेतु जनजाग्रति कर रहे हैं। विगत दिनों आयड - उदयपुर में सम्पन्न राष्ट्रीय वैज्ञानिक संगोष्ठी (देखें, पृ. 83) में समागत विद्वानों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वहाँ के जिलाधीश को ज्ञापन प्रस्तुत कर NCERT की पुस्तक में प्रकाशित अनर्गल बातों को अविलम्ब संशोधित करने का आग्रह किया। आपकी प्रेरणा से Directorate of Local Bodies के उपनिदेशक (प्रशासन) श्री एन. के. खींचा R.A.S. ने अपने पत्र दिनांक 17.8.2000 से प्रो. रामशरण शर्मा को उदयपुर आमंत्रित किया, जिससे वे जैनधर्म के बारे में सही जानकारी ले सकें। सराकोद्धारक संत उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराज जहाँ भगवान ऋषभदेव की परम्परा के अनुयायी सराक बन्धुओं के धर्म की मूल धारा में पुन: स्थिरीकरण हेतु प्रयत्नशील हैं वहाँ महामहोत्सव वर्ष में अलवर में उन्होंने अनेकों कार्यक्रमों सहित भव्य प्रतिष्ठा सम्पन्न कराकर भगवान ऋषभदेव एवं उनके सिद्धान्तों की महती प्रभावना की। 11 जून 2000 को दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) के आमंत्रण पर जम्बूद्वीप में इतिहासकारों एवं विद्वानों की एक गोष्ठी हुई जिसमें NCERT के प्रतिनिधि डॉ. प्रीतिश आचार्य भी सम्मिलित हुए। (देखें - अर्हत् वचन, जुलाई 2000) इस सन्दर्भ में श्री खिल्लीमलजी जैन एडवोकेट, अलवर के प्रयास प्रशंसनीय हैं। आज देश के अनेक भागों में ऋषभदेव संगोष्ठियों एवं अन्य माध्यमों से ऋषभदेव एवं उनके सिद्धान्तों की व्यापक, चर्चा हो रही है। इसके परिणाम भी शनैः शनैः प्राप्त होंगे किन्तु हमें निरन्तर सतर्क एवं सचेष्ट रहना होगा एवं जैन धर्म/संस्कृति पर किये जाने वाले आक्षेपों का तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक रीति से सप्रमाण उत्तर देना होगा, तभी हम अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकेंगे। प्रथम अर्हत वचन पुरस्कार 99 के विजेता युवा शोध छात्र कुमार अनेकान्त जैन-लाइनें ने हमें एक महत्वपूर्ण सूचना प्रेषित की है। तदनुसार महर्षि दयानन्द सरस्वती वि.वि., अजमेर की बी.ए. भाग-1 में हिन्दी साहित्य के लिये स्वीकृत, राजस्थान प्रकाशन, 28-29 त्रिपोलिया बाजार, जयपुर से प्रकाशित एवं डॉ. श्यामसुन्दर दीक्षित, एसोसिएट प्रोफेसर-हिन्दी विभाग, जयपुर द्वारा संपादित पुस्तक प्राचीन काव्य माधरी के अध्याय-6, संत सन्दरदास के अन्तर्गत पृ. 56 पर निम्न त्रिभंगी छंद संख्या-11 प्रकाशित है -
तौ अरहंत धर्मी भारी भर्मी, केश उपरमी बेश्रमीं। जो भोजन नर्मी पावै पुरभी, मन मधु करिमी अति उरमी। अरु दृष्टि सुचर्मी अंतरि गरमी, नाहीं भरमी गह ठेला।
दादू का चेला भर्म पछेला, सुन्दर न्यारा है ला॥ यद्यपि उक्त छंद का अर्थ स्वयं में स्पष्ट है तथापि संजीव प्रकाशन, चौड़ा रास्ता, जयपुर-3
अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000