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अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
प्रकाशकीय अनुरोध
अर्हत् वचन का यह 48 वाँ अंक आपको समर्पित करते हुए मुझे हर्ष एवं गर्व की अनुभूति हो रही है। प्रस्तुत अंक 12 (4) अक्टूबर - दिसम्बर 2000 बारहवें वर्ष का अंतिम अंक है तथा नई सहस्राब्दि एवं शताब्दी की पूर्व संध्या में आपके हाथों में पहुंच रहा है। अत: सर्वप्रथम मैं आप सबको ईसवी नववर्ष की शुभकामनायें एवं बधाई देता हूँ एवं आशा करता हूँ कि
वैज्ञानिक एवं औद्योगिक क्रांति के वर्तमान युग में जब संचार के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं, हम और आप मिलकर अपनी अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने में सफल हो सकेंगे। हम और आप सभी इस बात से सहमत होंगे कि जैन परम्परा की सांस्कृतिक विरासत अत्यन्त समृद्ध है। हमारे पास प्राचीन मूर्तियों, शिलालेखों, मंदिरों, शिल्पखण्डों एवं पांडुलिपियों का विशाल भंडार है किन्तु इसका बहुभाग आज तक असूचीकृत, असूचित, असुरक्षित एवं अमूल्यांकित है। भारतीय संस्कृति के समग्र एवं जैन संस्कृति के विशेष रूप से मूल्यांकन हेतु इस ओर अविलम्ब ध्यान दिया जाना जरूरी है, क्योंकि कालक्रम से प्राकृतिक रूप से एवं संस्कृति विरोधी मानवों के निहित स्वार्थों के कारण इन सांस्कृतिक धरोहरों के विनाश की गति इन दिनों बढ़ गई है। हमारी नई पीढी की धर्म के प्रति सहज आस्था भी निरन्तर घट रही है। फलत: वैज्ञानिक दृष्टि से अपनी पारम्परिक क्रियाओं का महत्व प्रतिपादित करना एवं अपने महान् आचार्यों की वैज्ञानिक दृष्टि तथा विज्ञान विषयक उनके ज्ञान को भी उद्घाटित करना संस्कृति, संरक्षण तथा धर्म की प्रभावना के लिए आवश्यक है। 19 अक्टूबर 1987 को इन्हीं विचारों को मूर्तरूप देने के लिए एक स्वप्न के रूप में कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की स्थापना की गई थी। स्वप्न तो कोई भी देख सकता है, किन्तु उसको साकार रूप लेते देखना मुश्किल से नसीब होता है। मुझे इस बात की खुशी है कि इस सहस्राब्दि के अन्त में हम ज्ञानपीठ के रूप में एक मजबूत आधार पर खड़े हैं। सन्दर्भ ग्रंथालय में हमारे पास 8000 से अधिक ग्रंथ 375 से अधिक प्रकार की जैन पत्र-पत्रिकाओं का विशाल भंडार है। आधुनिक कम्प्यूटर केन्द्र की सुविधाओं से सज्जित इस ग्रंथालय को दाशमिक रीति से वर्गीकृत किया गया है। कम्प्यूटर की मदद से किसी भी पुस्तक की स्थिति एवं उससे सम्बद्ध महत्वपूर्ण विवरण पल भर में ज्ञात किये जा सकते हैं। यह सुविधा देश के अत्यन्त प्रतिष्ठित पुस्तकालयों में ही उपलब्ध है। सामाजिक संस्थाओं में तो अभी यह सुविधा कल्पनातीत है। इस ग्रंथालय का शोध छात्र व्यापक रूप से लाभ उठा रहे हैं। ज्ञानपीठ के अन्तर्गत ही संचालित परीक्षा संस्थान से गत 13 वर्षों में लगभग 125000 छात्र/छात्रायें नैतिक शिक्षा, बालबोध एवं पारम्परिक पाठ्यक्रम प्रथमा, मध्यमा, रत्न, शास्त्री आदि की परीक्षायें सफलता पूर्वक उत्तीर्ण कर चुके हैं। इससे जहाँ किशोरों को जैनधर्म/दर्शन का प्रारम्भिक ज्ञान दिया जा सका, वहीं प्राकृत - संस्कृत भाषा में निबद्ध जैन दर्शन के उच्च अध्ययन की ओर संस्कृत भाषा के विद्यार्थियों को उन्मुख किया गया।
पुरातत्त्व के क्षेत्र में विद्या वयो - वृद्ध डॉ. टी. व्ही. जी. शास्त्री के नेतृत्व में लगभग
अर्हत् क्चन, अक्टूबर 2000