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________________ (Fibre Food) कहता है। एक औषधि की टेबलेट में जिस प्रकार अंशों में ही औषधि तत्त्व होते हैं शेष विस्तार देने के लिये Dilutant, वैसी ही हमारे शरीर में आधार देने के लिये शून्य वर्गणाएँ भिन्न-भिन्न प्रकार की व्याप्त हैं - मांस में, हड्डी में, रक्त में। मांसाहार करने वाले व्यक्ति भूल जाते हैं कि जिस अंडे - मांस - मछली को वे आहार बना रहे हैं उसमें मात्र सूक्ष्म अंशों में ही उन्हें उपयोगी वर्गणाएँ मिल रही हैं, शेष सब तो शून्य वर्गणाएँ अथवा घातक वर्गणाएँ हैं जो मल रूप आंतों से फेंक दी जायेंगी। उन उपयोगी प्राप्त वर्गणाओं में भी दोषपूर्ण वे सारी शोषित वर्गणाएँ हैं जो पशु के लिये भी 'शून्य' और 'मलरूपी' थीं। आंतों में पड़ी शून्य वर्गणाएँ (मल) उल्टे मांसरूपी होने से घातक वर्गणाओं को उत्पन्न कराती हैं जबकि वानस्पतिक मल की fibre वर्गणाएँ आंतों में सड़कर अपान वायु और उपयोगी वर्गणाएँ दे सकती हैं (Vitamins)! मांसजन्य मल में जीवाणु वे ही जन्मते हैं जो शवों पर सड़ांध लाते हैं (Pathogenes)! ये पेथोजींस अति विकार वाली वर्गणाएँ बनाते हैं जो घातक हैं पर उन्हें आंतें सोख लेती हैं। वानस्पतिक मल पर ये पेथोजींस नहीं जीते (उन्हें मांस की लघार चाहिये)। जो जीते हैं वे पेथोजींस नहीं कमेन्सिल्स (Commensils) होते हैं जो विटामिन वर्गणाएँ पैदा करते हैं उन्हें आंतें सोखकर शरीर में फेंक देती हैं व हम विटामिन भी पा जाते हैं। जैन मान्यतानुसार संतुलित, संयमित विशुद्ध आहार से भावों द्वारा सम्यकदृष्टि जीव के अन्दर 'Super Power' रिद्धियां - सिद्धियां भी पैदा हो जाती हैं। रासायनिक विशुद्धियों के अन्तर्गत कभी संयोजना, कभी संक्रमण और विपरीतता में कभी विसंयोजना भी होती है। यहाँ आक्सीकरण होने की दशा में संयोजना होकर पारद भी उपयोगी औषधि बना लेता है। उसकी विषाक्तता में 'संक्रमण' से हीनता आ जाती है। किन्तु विपरीतता मिलने पर वही औषधि तत्व वापस पलट कर आक्सीकरण द्वारा विसंयोजित होकर घातकता दर्शाता है। इसी प्रकार मन की विशुद्धि के साथ आहार की विशुद्धि शरीर में ऐसी 'रस वर्गणाओं का संचार करती हैं जो सभी शारीरिक रासायनिक क्रियाओं को सही दिशा देती हैं। तब शरीर में आत्मा की विशुद्धि के कारण न केवल पुण्य - कार्माण वर्गणाओं का संयोग होने लगता है बल्कि संक्रमण द्वारा पिछली पाप- कार्माण वर्गणाओं के उपयोग और प्रभाव की दिशा भी बदल कर क्षीण प्रभावी बन जाती है। प्रायश्चित तथा तप, रसों को सुखाकर इसमें सहयोगी बनते हैं। जिस प्रकार आहार, जल, वायु तथा उपयोग/ संपर्क में आने वाली वर्गणाएं कभी - कभी किसी किसी व्यक्ति को एलर्जी पैदा करती है। (Histamine) हिस्टामिन का रस स्राव कराकर त्रिरूपी दोष दर्शाती हैं और उनके ऊपर एन्टीहिस्टामिनिक वर्गणाएं ताले - चाबी सा प्रभाव दर्शा कर दोष समाप्त करती हैं। उसी प्रकार इन कार्माण वर्गणाओं का प्रभाव भी देखने में आता है। पुण्य प्रभाव अर्थात् सुखकारक संयोग और पापप्रभाव अर्थात् दुखकारक संयोग बदलने लगते हैं। जैनाचार्यों ने इन भाव वर्गणाओं से उपजी परिस्थितियों को अति सूक्ष्मता से अध्ययन किया है। जिस प्रकार औषधि - वर्गणाएं प्रभाव देती हैं उसी प्रकार रत्नत्रयी (सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) सद्भाव, शुभभाव और धर्मभाव भी सारी 18 प्रकारी वर्गणाओं पर औषधि रूप प्रभाव रखते हैं। प्लेसबो (Placebo) थीरेपी में औषधि नहीं साइकोफोर के प्रभाव से रोगी स्वस्थ हो जाता है। प्रसन्न मन रहते शरीर को भूख - प्यास सामान्य लगती है, रक्त चाप सही रहता है। ममतामयी मां का दूध अमृत बनकर शिशु को पुष्ट करता है। वही मां यदि दुखी होकर रोती बिलखती है तो न केवल दूध सूखता है बल्कि शिशु को अपच और हानि का कारण भी बनता है। कदाचित मंत्र सहित भभूत, भस्मादि का भी ऐसा ही प्रभाव अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000
SR No.526548
Book TitleArhat Vachan 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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