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________________ रोगियों पर देखने में आता है। इससे स्पष्ट होता है कि भावों द्वारा जो मानसिक उद्वेलन व्यक्ति के शरीर पर प्रभाव दर्शाता है (क्रोध, विलाप, स्तब्धता) वह अपना उद्वेलन प्रभाव आत्मा पर भी फेंकेगा। कवि तथा साहित्यकारों ने इन्हीं उद्वेलनों को नवरस (हास्य, रसि, क्रोधादि) के रूप में अंतरंग पैदा हुए भाव- रस बतलाते हुए इनकी प्रभावकता को सिद्ध किया है। भावों द्वारा आत्मा पर उत्पन्न विशेष आतुरता केन्द्र (उपलब्ध) द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव, भव के अनुरूप अपनी विशेष योग्य वर्गणाओं को ग्रहण करा लेते हैं। बलि दिये जाते समय पशु के भय और आर्त भावों से उसका मांस कितना विषमय हो जाता है यह सोचे जाने की बात है। इसीलिये भारत में शाकाहार ही स्वीकार था। सामान्यत: जैसे भाव होते हैं तदनुरूप विचार बनते हैं और उन्हीं के अनुकूल वाणी अथवा शब्द उच्चारित होते हैं। मन का टेढ़ापन वाणी के टेढ़ेपन के रूप में सामने आता है। शब्द भी ध्वनि- वर्गणाएं हैं। जैनाचार्यों के अनुसार शब्द की यात्रा तरंग रूप में मन से तभी प्रारम्भ हो जाती है जब वह नाभि के नीचे ‘पराबात' ऊपर आने वाली वायु बनता है। नाभि पर पहुँचने पर उसे 'पश्येति तथा हृदय तक आते उसे 'मध्यमा' कहा है। इस प्रकार तरंग रूप ही उसे तीन स्थानों से गुजरते हुए जब कंठ में आना पड़ता है तब वह स्वर भी बन सकता है और 'बैखरी' शब्द बनकर मुँह से उच्चारित भी हो सकता है। उस शब्द का अर्थ / संकेत होता है। हवा में तैरती वह ध्वनि भी 'तरंग' ही रहती है जिसे आज तरंगों स्वरूप ही कैसेट्स में प्लास्टिक फीते पर ध्वनि संकेतक से उकेरकर पुन: दोहराते हुए सुना जा सकता है। शब्द सही ना हुए तो अनर्थ भी हो जाते हैं, सदमें पहुँच सकते हैं। मरते हुए व्यक्ति को भी वे संजीवनी बन सकते हैं। यह सब शब्द - वर्गणा (ध्वनि) का प्रभाव है जो आत्मा द्वारा मन में (इच्छा से) उठाई जाती है और उसी के द्वारा सतह पर प्रभाव डाल 'स्मृति' बन ठहर जाती हैं। उस वर्गणा के रहते, श्रुत ज्ञान (जो कि हल्के स्तर का ज्ञान भी है) रहता है। अन्य वर्गणाओं के साथ इसके भी झड़ने पर जब वर्गणाओं के बादल छंटते हैं तो अवधिज्ञान और अधिक छंटने पर मन:पर्यय ज्ञान तथा समस्त ज्ञानावरणी वर्गणाओं के हटने पर "केवलज्ञान' अपने सम्पूर्ण तेज के साथ प्रगट होता है। वर्गणाओं की यह धूल अथवा बादल हटाना बहुत बड़ा (सबसे बड़ा) पुरुषार्थ माना गया है। सम्पूर्ण वर्गणाओं का बोझ आत्मा पर से हटने पर ही वह मुक्त होती है। यही तीर्थंकरों, केवलियों, भव्यों का लक्ष्य रहा है, ज्ञानियों की चेष्टा रही है, तपस्वियों की साधना रही है। अन्यथा तो जिसका जितना बड़ा वर्गणाओं का घेरा है उसका उतना ही लम्बा और विस्तारमय संसार है। वर्गणाओं के ऊपर वर्गणाओं का घेरा पहाड़ सा बनकर आत्मा को गहरे दलदल में डुबा देता है। गृहस्थ और साधु दोनों इस दलदल से उबर सकतेहैं। मात्र दया और करुणा उनका सहारा होते हैं। इस विश्व में सदैव से इन्हीं 'दया' और 'करुणा' के सहारे संसार और संसरण चल रहा है वरना कभी का यह विश्व विनाश हो जाता। क्योंकि अज्ञानियों ने इसमें हिंसा फैला रखी है। जिसे वह हिंसा नहीं मानता मल में वह भी हिंसा ही निकलती है जब कि ज्ञानी और साधु के द्वारा प्रकट में 'कदाचित अनजाने हिंसा' होकर भी 'अहिंसा' ही पलती है। जैनधर्म ने सदैव से इसी जीवदया का सहारा लेकर इसे ही आगे बढ़ाया है। आज का सहजीवी अस्तित्व, पर्यावरण और वैयक्तिक जीवन सब इसी पर निर्भर है 'अत: यह मानवधर्म ही नहीं जीव धर्म भी है और विश्व धर्म भी।' ___वायरसों, पी.पी.एल.ओ.,रीकेसियों और सूक्ष्म जीवाणुओं (बेक्टीरिया) को निगोद कहा अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000
SR No.526548
Book TitleArhat Vachan 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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