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________________ रसायन विधि से भी तैयार कर ली गई हैं। इसका एक लाभ तो यही हआ कि जिन जीवाणुओं से वे वर्गणाएँ उत्पादित होती हैं उनका प्रयोगशालाओं में कठिन 'संरक्षित उत्पादन' नहीं करना पड़ा। दूसरे उस 'मल वर्गणा' को शुद्ध स्थिति में प्राप्त करने हेतु लंबी लागत और मेहनत के बाद भी अधिकांश वर्गणाऐं 'रूप बदलकर' अपना प्रभाव खो देती थीं। तीसरे रासायनिक उत्पादन, जैविक उत्पादन से बहुत सस्ता और मात्रा में अधिक था। जिस पेनिसिलीन इन्जेक्शन की कीमत प्रारम्भ में हजारों डालर थी आज वही कदाचित 'एक रुपये' की भी नहीं है। यह सब कीमोथेरेपी से ही संभव हुआ वर्गणाओं का खेल है। भारतीय चिकित्सा पद्धति (आयुर्वेद) प्रारम्भ से ही इन्हीं 'वर्गणाओं' के नियंत्रण (Control) के ऊपर आधारित थी। शरीर के अन्दर 'आहार' द्वारा ली गई 'वर्गणाएँ, ऊर्जा उत्पादन के साथ-साथ कुछ तो शरीर द्वारा ही निर्माण हेतु उपयोग कर ली जाती हैं, कुछ 'मल' बनकर फिंक जाती हैं। यदि ये वर्गणाएँ ना फिकी तो वे तरह- तरह के विकार शरीर के अन्दर अपने वहाँ छिड़ने से दर्शाती हैं। इसे आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में 'त्रिदोष' के नाम से जाना जाता है जो वात, पित्त तथा कफ कहलाता है। ये तीन प्रकार के लक्षण पैदा करने वाली 'वर्गणाऐं' हैं। वात से रक्त संचालन तथा हाथ-पैरों में व्याधि प्रकट होती है। पित्त से ताप तथा रक्त संबंधी दोष तथा कफ से श्वांस और श्लेष्म संबंधी विकार। तीनों स्थितियों में आहार वर्गणाओं से शरीर के अन्दर ऐसी वर्गणाएं निर्मित होती हैं जो बडी एवं सघन होने से शरीर उन्हें निष्कासित नहीं कर पाता। वे मल रूप होकर भी शरीर में ही घूमती रहती हैं। वात वर्गणाएं हाथ पैर की सूजन और पीड़ा के रूप में बाधा देती हैं। इन्हें आधुनिक विज्ञान ‘ग्लायकोप्रोटीन्स (Glycoprotiens) के नाम से पुकारता है जो संख्या में 1000 प्रदेशी से 8,00,000 प्रदेशी तक की विशाल संभव हैं। इनका स्कंध 'आड़ा तिरछा' होने से कफ अनेकों 'चमीटा' रूप ओरछोर बना कर रक्त को गाढ़ा कर देता है। आयुर्वेद द्वारा इसे शर्करा के उपयोग से (गुड़ तथा राब) घुलनशील और सरल / ऋजु बना दिया जाकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दिया जाता है। यह 'काटना' इस प्रकार रासायनिक क्रियाओं द्वारा होता है (जिन्हें विज्ञान 4 प्रकार की एन्जाइम 14 क्रियाएं जानता है - आक्सीकरण, अनाक्सीकरण, हाइड्रोलिसिस तथा कान्जुगेशन) ताकि बड़ी अघुलनशील वर्गणा छोटी श्लेष्म वर्गणा बन कर फिंक जावे। यह विकार तब श्लेष्म बनकर कफ रूप, आंव रूप, नाक के श्लेष्म रूप अथवा योनि श्लेष्म बनकर निकल जाते हैं। कुछ विकार आंख से कीचड़ के रुप में, कुछ अघुलनशील मल चर्मरोगों के रूप में (एक्जीमा) एलर्जी आदि बनकर भी निकलते हैं क्योंकि शरीर इन्हें अपने पास रख नहीं सकता। जब तक यह शरीर में मौजूद रहते हैं ये शरीर की सामान्य बायोरसायन क्रियाओं को पूर्ण नहीं होने देते और भारीपन महसूस कराते हैं। आधुनिक विज्ञान भी अब इन्हें 'म्यूको प्रोटीन्स कहकर पुकारता है और इन्हें शरीर के अन्दर सुचारू बनाने का प्रयास बतलाता है। आहार वर्गणाओं का भी इनपर बहुत प्रभाव पड़ता है। आहार वर्गणाओं के साथ हमारे ज्ञान-अज्ञान वश अनेकों उपयोगी, अनुपयोगी तथा विषैली वर्गणाएं भी शरीर में सहज प्रवेश पा लेती हैं। इनका प्रभाव शरीर तथा मन दोनों पर पड़ता ही है। इसी कारण भारत में सदैव से "जैसा खाओ अन्न - वैसा होवे मन' कहकर आहार विशद्धि पर ध्यान दिया गया है। हम जो थाली में से विभिन्न प्रकार के भोजन करते हैं उनमें मात्र कुछ ही हमारी सत्त्व रूपी आहार वर्गणाएँ होती हैं, शेष अधिकांश तो 'छूछना' ही रहती हैं जो मल को 'भार' देकर, वास्तविक निष्कासित मल को ढो ले जाती हैं। जो फल और सलाद हम खाते हैं उसमें अधिकांश यही शून्य वर्गणाएँ ही हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान 'फाइबर फूड' अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000 44
SR No.526548
Book TitleArhat Vachan 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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