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________________ पाया है। किन्तु विज्ञान की एक बात प्रशंसनीय है कि वह मूढ़ता से परे सत्य को समझते ही स्वीकारने में देर नहीं करता । सामान्य व्यक्ति 'कर्म' शब्द को वैसे ही जिस अंदाज में उपयोग करता है, उससे वह 'किया हुआ कर्म' ही समझता है। गीता में कृष्णजी द्वारा उसे लगभग ऐसा ही समझाया प्रतीत होता है, किन्तु जैन सिद्धान्त में 'कर्म' की व्याख्या उस वर्गणा रूपी घिराव से है जिससे आत्म तत्त्व अनुबंधित हो जाता है। अतः 'कर्म' यानि कार्माण वर्गणाएँ जिनका 'आस्रव' और 'बंध' हुआ तथा जो जाते जाते अपने अपने उदय समय पर 'कर्मफल' दिखा कर ही जायेंगीं । जीवित शरीर स्वयं इन कर्मों ही का पिंड है। पाठकगण विस्मय करेंगे कि स्थूल में ये 8 प्रकार की कार्माण वर्गणाएँ क्या और कैसी होती होंगीं ? कहाँ होती होंगीं ? हमें दिखती क्यों नहीं ? जबकि उनके ही कारण यह शरीर, व्यक्तित्त्व, लिंग, कुल जीवन, ज्ञान, उपलब्धियां, सुख-दुख आदि मिलते हैं। वास्तव में ये अनंतानंत प्रकार की होती हैं। - आज हम तो यही मानते और जानते हैं कि वह 'डिम्ब' और 'शुक्राणु' जो संयोग कर भ्रूण में फलित होते हैं अपने रासायनिक अवयव, 'क्रोमेसोमल' (प्रोटीन वर्गणाएँ) तत्त्वों के कारण 'जीन्स' पर आधारित भ्रूण की संवर्धना (शरीर), व्यक्तित्त्व, लिंग और पर्याप्तियों हेतु कारण होते हैं। किन्तु उनके उस 'संयोग' को किसने बाधित अथवा सहयोग किया, किसने उस पर्याय को चुना, किसने जीवन में सुख दुःख, उपलब्धियाँ और ज्ञान दिया इसकी ओर विज्ञान 'मौन' रह जाता है। अत्यंत प्रबुद्ध माता-पिता की संतान भी कभी विक्षिप्त और कभी ज्ञानहीन क्यों रहती है ? रुचियों में, जीन्स के बावजूद मेल क्यों नहीं बैठता ? आनुवांशिक निर्दोषता के बावजूद बालकों में कभी - कभी असाध्य विकृतियाँ क्यों स्थान पा लेतीं हैं ? कोडोन (Codon) सही संदेश क्यों नहीं दे पाते ? डी. एन. ए. रेप्लीकेशन में 'छूट' (Missings) क्यों हो जाती है ? इसके सही सही उत्तर हम जानते हुए भी नहीं जानते हैं, बायोटेक्नॉलाजिस्ट भी नहीं जानते। जैनाचार्यों ने इन सब बातों को वर्गणाओं का खेल बतलाया है जो आत्मा के ऊपर हजारों कार्माण बादलों (वर्गणाओं) के कारण ही होता है। रसायन विज्ञान की तरह जैन विज्ञान भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को वर्गणाओं (Molecular Aggregates) से भरा मानता है। यह पौद्गलिक होती हैं। ये हवा जिसे हम पंखे से अनुभव करते हैं, यह गर्मी - सर्दी नमी, धूल, प्रकाश, ध्वनि, ऊर्जा, खुशबू - बदबू, अनुकूल प्रतिकूल आबोहवा, एलर्जेन्स (Allergens), श्वांस प्रच्छवांस सभी पुद्गल की भिन्न-भिन्न वर्गणाएँ हैं । जैन विज्ञान का ये अति महत्वपूर्ण चिंतन क्षेत्र बनाती हैं। - - जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार 4 (1) समान गुण वाले 'परमाणु पिंड' को 'वर्गणा' कहते हैं जो पाँच प्रकार के प्रधान स्कंधों (Aggregates ) रूप त्रिलोक संस्थान में जीवों हेतु सर्व भौतिक पदार्थों (आहार, पानी, ताप, शक्ति, श्वांस, मल) के उपादान का कारण होती हैं अथवा (2) विशेष जाति की वर्गणाओं से विशेष पदार्थों का निर्माण होता है अर्थात ये किसी विशेष (रासायनिक क्रिया) नियम से अपनी पहचान भी रखती हैं और अपनी 'पुकार' (आवश्यकता) को भी पहचानती हैं। ठीक (आगे वर्णित ) Key - Lock सिद्धान्त की तरह (Receptor and Received Phore) अथवा ( 3 ) समगुण वाले समसंख्या तक वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं ( परमाणु तथा रबे ) । प्रदेश की इकाई रखते परमाणु / अणु अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000 30 - - -
SR No.526548
Book TitleArhat Vachan 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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