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________________ शक्ति और उस विशेष शक्ति (जैविक) में बहुत बड़ा भेद है। उस विशेष शक्ति को जैनाचार्यों ने सर्वाधिक प्रधानता दी है, क्योंकि वही 'विशेष शक्ति' सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में स्पन्दन करती हुई अपनी-अपनी पर्यायों की उपस्थिति से इस संसार को अस्तित्त्व देती है। सब एकाकी, अलग-अलग सर्वथा स्वतंत्र पथ पर भ्रमण करती है। इन्हें 'जीव' कहा गया है जो विज्ञान समझ नहीं पाया है। जीव अकेला होते हुए भी अनंतानंत है। विस्मित होते हुए भी विज्ञान इसे नकार नहीं पाता और स्पष्ट भी नहीं कर पाता है। जो पुद्गल जीव द्रव्य के साथ संयोग करके जीवराशि बनाते हैं वह सूक्ष्मतम जीवन भी जैन सिद्धान्तानुसार त्रस नाड़ी में ठसाठस है, मध्यलोक में विस्तारित है तथा संसार के संसरण का कारण है। इसी पुद्गल द्रव्य से समस्त वस्तुओं का अस्तित्त्व और उत्पाद - ध्रौव्य - व्यय परिलक्षित होता है। सम्पूर्ण संसार की दृष्ट - अदृष्ट भूलभुलैया बनाने वाले यही पुद्गल तथा पुद्गल में उलझा जीव द्रव्य है। शुद्ध स्थिति में जीव सर्वप्रधान, मुक्त, सिद्ध प्रभु हैं, चिदानंद हैं और इस पौद्गलिक संसार से दूर अछूते स्थित हैं। समस्त सिद्ध, जीव / आत्माएँ प्रकाश की भांति उस अछूते क्षेत्र, सिद्ध शिला (जो पुद्गल से अभेद्य है) पर एक साथ अवस्थित हैं जहाँ भीड़ होकर भी कभी भीड़ संभव नहीं। अब वे कभी भी इस संसार में वापस बंधने नहीं आयेंगी, क्योंकि कोई शक्ति उन्हें बांध नहीं सकती, वे परम शांत हैं। आत्म द्रव्य अथवा जीव को बांधने वाली शक्ति उसी में स्वयं में उठती चंचलता जन्य आकर्षण शक्ति है जो साथ फैली वर्गणाओं को चुन-चुन कर खींच लेती है ठीक हमारी श्वांस प्रक्रिया की तरह [ जिस प्रकार वायु अपने आप हमारी श्वांस में नहीं आती हम उसे खींचकर उसकी ओषजन वर्गणाएँ ले लेते हैं और उसमें कार्बनमोनोक्साइड डाल देते हैं जो उसी क्षण डायआक्साइड बन कर फिक जाती हैं। अथवा हम शुद्ध जल वर्गणाएँ पीकर उसे श्वांस (वाष्प) से, सतही भाप तथा नव मलद्वारों के मलों स्वरूप निष्काषित कर देते हैं।] जो जीव द्रव्य जीवन रूप में हमें संसार में (जैविक रूप) दिखता है, उसने स्वयं की चंचलता ( उठती इच्छाओं) के कारण कर्मवर्गणाओं के बादलों को आकृष्ट कर अपने को गहरे दलदल में डुबा लिया है। इतना गहरा डुबाया है कि उसकी कहानी गहन गहराइयों में पड़े 'निगोद' स्थिति से प्रारम्भ की जा सकती है। काल प्रभाव से परिवर्तित झेलते कर्मों का फल भोगते, कर्मों की निर्जरा करते वह कभी सर्वोत्तम ऊँचाइयों में मनुष्य स्थिति में भी आया तो यहाँ से इच्छाओं और कषायों के घेरों में स्वयं अंधा बन पुनः पुनः कर्म दलदल की गहराइयों में जा डूबा । इसलिये उसके संसार का अंत नहीं हुआ। मनुष्य के अलावा किसी अन्य पर्याय में इसे सिवाय निरीह जीवन जीने के कहीं इतना सामर्थ्य ना रहा कि ये अपनी दुर्गतियों अथवा स्थितियों के बारे में सोच सकता। मनुष्य होकर भी सदैव अज्ञानवश रह या तो उस कल्पित 'सृष्टिकर्ता भगवान' नामक शक्ति (?) को कोसता रहा अथवा दूसरों को अपना सुख और दुःख का जिम्मेदार ठहराते हुए कर्म आवरण बढ़ाता रहा। प्रत्येक जीव इस प्रकार स्वयं के कर्मों का आवरण ओढ़ता हुआ उसी के फलों को भुनाता - भोगता, 84 लाख योनियों के चक्र में भ्रमण करता रहा है। यही उसके एकाकी जीवन की सत्यताओं को स्पष्ट करा देता है। जैनागमों में इस सम्पूर्ण 'जीवन जगत' को पाँच श्रेणियों में उनकी ऐन्द्रिक सामर्थ्य के अनुसार विभाजित किया गया है, जिसे अभी विज्ञान भी उतनी गहराई में नहीं देख अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000 29
SR No.526548
Book TitleArhat Vachan 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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