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________________ जैन मान्यता है कि छहों द्रव्य ही पूरे संसार को रूप देते हैं, छहों अपने आप में स्वतंत्र हैं, अविनाशी हैं, शाश्वत् हैं तथा एक दूसरे को बाधा नहीं देते, विज्ञान भी स्वीकारता है। 'आकाश' के असीम विस्तार में शेष पाँच समाये हैं। आकाश एक इकाई होने के बावजूद क्षेत्रीय दृष्टि से प्रदेशों में बंटा है जहां 'काल' इकाई के भी सूक्ष्मतम अंश 'कालाणु' प्रत्येक प्रदेश में एक-एक कर ठसाठस भरे हैं जिस प्रकार खसखस के दाने अथवा मोती। प्रत्येक कालाणु 'निश्चय - काल' का सूक्ष्मतम अंश, निरन्तर परिणमन करते हुए सभी संपर्क में अवस्थित पुद्गल परमाणुओं में भी वर्तना लाता है। इसी कारण उसके स्वयं के वर्तना / परिणमन का भी बोध होता है। पुद्गल के परमाणु भी दृष्ट / अदृष्ट रूप से सारे त्रिलोक आकाश प्रदेशों में बिखरे पड़े हैं। वे जहाँ-जहाँ हैं वहाँ-वहाँ काल का वर्तना प्रभाव दृष्टिगत है। वे जहाँ नहीं हैं ( यथा अलोकाकाश में) वहाँ उनकी अनुपस्थिति वर्तना प्रभाव ना होने से स्पष्ट हो जाती है। आधुनिक विज्ञान 'निश्चय काल' के इस पक्ष से अवगत नहीं है। इसी प्रकार अनादि भूत, वर्तमान और अनंत भविष्य के बीच 'वर्तमान' का सूक्ष्मतम होना 'व्यवहार काल' की 'समय' इकाई कहा गया है। इसे विज्ञान Time Point कहकर इंगित करता तो है, किन्तु इसकी सूक्ष्मता को नहीं समझ पाया है। एक सेकंड में समयों की लम्बी आवलि मानी गई है, जो बिन्दु (Point) नहीं, रेखात्मक (Linear) है। अर्थात् एक के बाद एक 'समय' को पिरोये हुए है जिसमें न तो 'समय' उछलकर आगे या पीछे सरक सकता है और ना ही इकट्ठे 'कई समय एक साथ स्कंध बन, सरक सकते हैं। जैन आध्यात्म में अपने शरीर को भुलाकर 'अपने आप' की अनुभूति होना इसी 'व्यावहारिक' सूक्ष्म कालांश, 'समय' में संभव है जो वर्तमान होता है। अतः 'समय' को स्वयं से जोड़ने वाला अनुभूतक तत्त्व 'आत्मा' भी कहा गया है। यह तब संभव होता है जब बाह्य संसार से ऐन्द्रिक व्यापार रुककर अन्तर्यात्रा प्रारम्भ होती है। वही 'सामायिक' है । आधुनिक विज्ञान इसे परिभाषित नहीं कर पाया है। उसने तो रेखा को ही सही परिभाषित नहीं किया है। बिन्दु भी वास्तव में विस्तार नहीं केन्द्र है और केन्द्र की काल अपेक्षित निरन्तरता ही रेखा हो सकती है। 'माध्यमों' का रहस्य जैन आचार्यों ने किस विधि कर देता है। न्यूटन के सिद्धान्त से बहुत - बहुत पूर्व ही 'षट् द्रव्यों के रूप में न्यूटन को 'बौना' बना जाती है। की खोजें हैं, पर विश्वसनीय हैं। से समझा होगा आश्चर्यचकित इनकी उपस्थिति की घोषणा ईथर और ग्रेविटी बहुत बाद जीव (Vital Energy) का अस्तित्त्व मात्र एक 'शक्ति' मानकर विज्ञान ने उसकी विशेषता को जानते हुए भी 'अनजान' मान लिया है। 'शक्ति' का आधार तो विज्ञान पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश 'अणु' मानता ही है। मेन्डलीफ के पीरियाडिक टेबिल के आधार पर 2 105 प्रकार के तात्त्विक (Elements) अणु / परमाणु पाये जा सकते हैं जो स्वतंत्र भी रह सकते हैं। इन सभी को छिन्न भिन्न करते जायें तो क्रमशः इलेक्ट्रॉन, फोटोन, प्रोटॉन, न्यूट्रिनों को कम करते हुए अणु शून्य में समा जायेगा और विकीर्णित अंश 'शक्तियों' के रूप में सामने आयेंगे, जो छह प्रकार की (ताप, प्रकाश, दबाव, चुम्बक, विद्युत, ध्वनि) जानी देखी जाती हैं। जैन मान्यतानुसार ये सब पुद्गल हैं। कुछेक पुद्गल अणु मात्र पुद्गल रूप पड़े रह जाते हैं और कुछ किसी विशेष 'शक्ति' का संपर्क पाकर 'जीवन' रूप परिणमित होते हैं, यही संकेत करता है कि आणविक अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000 28
SR No.526548
Book TitleArhat Vachan 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size6 MB
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