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________________ ( ७ ) क्षेत्र उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तरप्रदेश रहा, जिसका केन्द्र श्रावस्ती था। महावीर के अचेल निर्ग्रन्थ संघ और पाश्र्वापत्य सन्तरोत्तर (सचेल) निर्ग्रन्थ संघ के सम्मिलन की भूमिका भी श्रावस्ती में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर द्वारा सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालन्दा में और बुद्ध द्वारा सर्वाधिक चातुर्मास श्रावस्ती में व्यतीत करना होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म था अतः अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थ संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई, जबकि उत्तर के निर्ग्रन्थ संघ में कुछ पाश्र्वापत्यों के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभावतः भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं । बौद्ध धर्म में भी बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की माँग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने ही की थी, जो उत्तरी तराई क्षेत्र के थे । बौद्ध पिटक साहित्य में निर्ग्रन्थों को एकशाटक और आजीवकों को नग्न कहा गया है जो यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीतनिवारण हेतु उत्तरभारत का निर्ग्रन्थ संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था। मथुरा में ईस्वी सन् प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें सभी श्रमणों को एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वे सामान्यतया नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जन समाज में जाते समय एक वस्त्रखण्ड हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अति शीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ लेते थे । यह सुनिश्चिन है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए थे। आचारांग से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृहीपात्र का उपयोग कर लेते थे, किन्तु बाद में उन्होंने इसका त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गये अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से सम्भवतः सर्वप्रथम निर्ग्रन्थ संघ में शौच के लिये जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा, किन्तु भिक्षुओं की बढ़ती हुई संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिये भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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