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( ८ ) करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथमद्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है, जो अपने हाथ में एक पात्रयुक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन ( रजोहरण ) लिये हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वे० परम्परा में, विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुखवस्त्रिका ( मुँह-पत्ती) और प्रतिलेखन ( रजोहरण ) के भी अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मयूरपिच्छि और श्वे० परम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही प्रकारों में मिलते हैं। यद्यपि स्पष्ट साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अभाव में यह कहना कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूर-पिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु के। दिगम्बर परम्परा में मान्य यापनीय ग्रंथ मूलाचार और भगवतीआराधना में प्रतिलेखन ( पांडिलेहण) और उसके गुणों का तो वर्णन है, किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तरभारत के निर्ग्रन्थसंघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन ( रजोहरण ) का प्रचलन था। सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे और साध्वियाँ साटिका पहनती थीं। मुनि वस्त्र का उपयोग उचित अवसर पर शीत एवं लज्जा निवारण हेतू करते थे। मुनियों द्वारा सदैव वस्त्र धारण किये रहने की परम्परा नहीं थी। इसी प्रकार इन अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप मुख पर बँधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के श्वे० आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिलता है, वे सम्भवतः ईसा की दूसरीतीसरी शती तक निश्चित हो गये थे। यापनीय या बोटिक संघ का उद्धव : । ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छह सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थसंघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलतः उत्तरभारत का निर्ग्रन्थसंघ सचेल एवं अचेल ऐसे
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