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रूप में जैन देवमंडल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया। उनकी कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिये अनेक तान्त्रिक विधि-विधान बने । जैन तीर्थंकर तो वीतरागी था, अतः वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था और न दुष्टों का विनाश, फलतः जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी देकर अपने को युग-विद्या के साथ समायोजित कर लिया। इसी प्रकार भक्ति मार्ग का प्रभाव ही इस युग में जैन संघ पर पड़ा। तन्त्र और भक्तिमार्ग के संयुक्त प्रभाव से जिन मन्दिरों में यक्ष-पूजा आदि के रूप में विविध प्रकार के कर्मकांड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन प्रतिमा की हिन्दू परम्परा की षोडशोपचार पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी । न केवल वीतराग जिनप्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित किया गया, अपितु उसे फल-नैवेद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण द्वारा तीर्थंकर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर परम्परा में अधिक आया था, किन्तु दिगम्बर परम्परा भी इससे बच न सकी।
विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मंत्र-तंत्र का प्रवेश उसमें भी हो चुका था। श्रमण परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म व्यवस्था का परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र जल-त्याग पर बल दिया गया। मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान :
यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं सुविधावाद का युग था, फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्रों में जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोला, आबू ( देलवाड़ा), तारंगा, राणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्य कला, जो ९वीं शती से १४वीं शती के बीच में निर्मित हुई, आज भी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुई। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि,
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