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________________ जैनविद्या धर्म नहीं । धर्म तो वहां है जहां राग-द्वेषादि छोड़कर शुद्ध निजात्मा में वास होता है । चित्त अथवा मन की चंचलता छोड़कर उसे विशुद्ध और स्थिर करना आवश्यक है 56 धम्मु ण पढियई होइ धम्मु ण पोत्था पिच्छ्रियइं । धम्मु ण मढिय-पएस धम्मु ण मत्था लुंचय ॥ 47 ॥ राय-रोस बे परिहरिवि जो अप्पारिण बसे । सो धम्मु वि जिण उत्तियउ जो पंचम गइ ई ।। 48 ॥ यो. सा. संतों ने भी चित्तशुद्धि पर जोर दिया है। उन्होंने भी सद्गुरु और सत्संग को महत्त्व दिया है । योगीन्दु की परम्परा में हुए मुनि रामसिंह ने भी चित्तशुद्धि बिना तीर्थ भ्रमण और सिरमुंडन निरर्थक माना है । 41 संत कवि भी "हरि न मिले बिन हिरदं सूध " के उपासक हैं । स्वानुभूति को भी उन्होंने प्रधान तत्त्व के रूप में स्वीकारा है । इसलिए अन्ध-विश्वासों को दूर करने में उन्होंने अपनी बहुत कुछ शक्ति लगा दी । बाह्याचार, शास्त्र - पठन, तीर्थ - भ्रमण को उन्होंने व्यर्थ कहा । सरह ने " की तेहि तीर्थ तपोवन श्राइ । मोक्ष की लभि यहि पानि नहाई " 42 कहा तो गोरखनाथ ने “पाषाण की देवली पाषाणं च देव, पाषाणं पूजिला कैसे फीटीला सनेह 43 कहकर पूजा-पाठ को व्यर्थ माना । कबीर पाखंडियों की दशा का वर्णन करते हैं पंडित भूले पढि गुनि वेदा, प्रापु अपनपौ जानु न भेदा । संज्ञा तरपन औ षट् करमा, ई बहुरूप गाईत्री जग चारि पढ़ाई, पूछहु जाय करहिं अस घरमा ।। मुकति किन पाई ।। 44 कबीर की इस प्रकार की विचारधारा को व्यक्त करनेवाले अनेक पद्य मिलते हैं । नानक ने "कोई नावे तीरथि कोई हज जाव "45 कहकर और सुन्दरदास ने "तौ भक्त न आवै, दूरि बतावै, तीरथ जावै फिरि प्राव 46 लिखकर इसी पाखंडपूर्ण बाह्याचार का ही उल्लेख किया है । दादूदयाल ने तो स्पष्ट कहा है कि सारा बाह्याचार झूठा है 147 आन्तरिक शुद्धि से साधक परमात्म-साक्षात्कार करता है और परमतत्त्व में ऐक्य स्थापित कर समरस हो जाता है । समरसता में उसकी दृष्टि समभाव में प्रतिष्ठित होती है, सभी जीव उसे समान होते हैं 118 जाति-पांति में उसका कोई विश्वास नहीं होता ( प . प्र . 2.107 ) । रत्नत्रय की उपलब्धि भी समभावी को ही होती है और वही मोक्ष प्राप्ति ar fधकारी होता है । 49 उसकी साधना का लक्ष्य पूरा हो जाता है इसलिए समरस होने पर योगीन्दु के सामने यह समस्या आयी कि वे अब किसकी पूजा करें— मणु मिलियउ परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स । वीहि वि समरसि हूवाहॅ पुज्ज चडावउं कस्स ।। 1.123 ( 2 ) प. प्र. मुनि रामसिंह ने भी इसी समस्या का सामना किया। 50 समरसता का यह अनुभव सन्त कवियों ने भली-भांति किया है । आणंदा ने "समरस भावे रमियां अप्पा देखई सोई 51 कहकर इसी का अनुभव किया और कबीर ने भी सर्वत्र उसी का दर्शन किया—
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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