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________________ जनविद्या है - आप आप विचारिये तब केता होय ग्रानन्द रे 125 कबीर का ब्रह्म सर्वव्यापक है | उन्होंने उसके अनन्त नाम दिये हैं- अपरम्पार का नाऊं अनन्त । राम रहीम, खुदा, खालिक, केशव, करीम, बीदुलराउ, सत् संतनाम अपरम्पार, अलखनिरंजन, पुरुषोत्तम, निर्गुण, निराकार, हरि, मोहन प्रादि । सर्वात्मवाद और द्वैतवाद के सम्मिलित स्वर में नामदेव ने इसी को मुरारि कहा जो सर्वत्र सभी प्राणियों में विद्यमान है 126 दादू ने इस को "बाबा नहीं दूजा कोई । एक अनेक नाऊं तुम्हारे मौपै और न होई" कहा है 1 27 योगीन्दु के समान कबीर ने भी 'परमात्मा या ब्रह्म को " वरन विवरजित है रह्या, नां सो स्याम न सेत" कहा 128 रैदास ने उसे निश्छल, निराकार, ग्रज, अनुपम, निरभय, ग्रगम, गोचर, निर्गुण, निरविकार, अविनासी कहा । 29 नानक ने योगीन्दु के समान उसे निरंजन कहा 30 दादू ने भी उसे अगम, अगोचर, अपार, अपरम्पार कह कर परमात्मा के उपर्युक्त स्वरूप को स्वीकार किया । 31 55 प्रत्येक प्राणी के अन्दर परमात्मा के विद्या के कारण जान नहीं पाता । लगता है कि 'जीव ब्रह्म नहिं भिन्न' कबीर, दादू, सुन्दरदास आदि सभी संतों ने अस्तित्व को स्वीकार किया है जिसे वह मिथ्यात्व या मिथ्यात्व या विद्या के दूर होते ही वह यह समझने जीव और परमात्मा में कोई भेद नहीं | 32 दादू ने इसी तथ्य को " परमातम सो प्रातम, ज्यों जल उदक समान" कहा । योगीन्दु के समान अन्य संत भी इसे स्वीकार करते हैं कि माया अथवा विद्या के कारण श्रात्मज्ञान नहीं हो पाता । जायसी ने ब्रह्म-मिलन में माया और शैतान ये दो तत्त्व बाधक माने हैं । कबीर ने माया को छाया के समान महाठगिनी कहा, 34 तो तुलसी ने उसे वमन की भांति त्याज्य बताया । योगीन्दु ने कहीं अपने आपको मुनि नहीं कहा । संभव है वे गृहस्थावस्था में रहकर ही अपनी साधना करते रहे हों । सन्त भी इसी परम्परा के अनुयायी रहे । आत्मज्ञान की प्राप्ति में उन्होंने वेद, शास्त्र आदि को व्यर्थ माना । श्रात्मज्ञान के संदर्भ में कबीर का कथन "भाषा पर जब चीठिइयां तब उलट समाना माहि" 36 “हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहीं सौं त्यो लाई ई 37 "हरि में तन है तन में हरि है सुनि नाहीं सोय 38 द्रष्टव्य हैं । उन्हें दुःख और आश्चर्य होता है कि अपने भीतर विद्यमान आत्मा-परमात्मा को कोई नहीं देखता - कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे वन मांहि । ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनियां देखे नाहि ॥ ३७ योगीन्दु ने चित्तशुद्धि को प्रमुखता दी । उन्होंने कहा कि चित्त यदि राग-द्वेषादिक विकारों से ग्रस्त रहा तो अनशनादि बाह्य तप निरर्थक हैं । निर्विकल्प वीतराग चारित्र से ही आत्मसिद्धि होती है । जो निर्विकल्प आत्म-भावना से शून्य है वह शास्त्रज्ञानी और तपस्वी होता हुआ भी परमार्थ को नहीं जान पाता । योगीन्दु ने उसे 'मूढ़' कहा हैं । वीतरागता और स्वसंवेदन ज्ञान से रहित जीवों को तीर्थ-भ्रमण करने से भी मोक्ष नहीं मिलता 140 जब तक परमशुद्ध पवित्र भाव का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक मूढ़ लोगों के जो व्रत, तप, संयम और मूल गुण हैं उन्हें मोक्ष का कारण नहीं माना जाता । मंत्र पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और पिच्छी मे भी धर्म नहीं होता । किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं, केशलुंच करने से भी
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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