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________________ जनविद्या तू तू करता तू भया, मुझमें रही न हूं। बारी फेरी बलि गई, जिन देखों तित तूं ॥2 योगीन्दु ने अपने ग्रन्थों में खण्डन-परम्परा को अधिक प्रश्रय नहीं दिया । प्रात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते समय न्याय-वैशेषिक, सांख्य और बौद्धों के मतों का मात्र उल्लेख कर उनके प्रति असहमति अवश्य व्यक्त की और इसी प्रकार जगत्कर्ता-हर्ता-संरक्षक के रूप का भी खण्डन किया । उनका सारा विवेचन अभेद और भेद, शुद्ध और अशुद्ध, निश्चय और व्यवहार पर ही आधारित रहा है । पुण्य और पाप की मीमांसा करते हुए शुद्धनय से उन्होंने पुण्य को भी त्याज्य बताया और कहा कि पुण्य को भी पाप माननेवाला विरल ही होता है ।54 योगीन्दु ने प्रभाकर भट्ट को 'जिणवर बंदहुं भत्तियएं' कहकर भक्ति का भी उपदेश दिया है पर उनकी दृष्टि में भक्ति से होनेवाला पुण्यबंध साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं है । परम्परा से उसे मोक्ष का कारण अवश्य माना जा सकता है । इसी संदर्भ में मन्त्र, मण्डल, मुद्रा आदि को भी व्यवहार ध्यान कहा है जिसको परमात्मा के ध्यान में निषिद्ध माना गया है (प.प्र. 1 22) । निर्विकल्प समाधि के स्वरूप को भी यहां स्पष्ट किया गया है ।56 परमात्मप्रकाश में दृष्टान्तों की भी कमी नहीं है । वस्तुस्वरूप को प्रस्तुत करने में उन्होंने वन, वृक्ष, चन्द्र, नाव, अग्नि, दीमक, बन्दर, समुद्र आदि का उपयोग किया है। संत परम्परा में भी उनका उपयोग होता रहा है। योगीन्दु और ब्रह्मदेव ने कुछ विशिष्ट शब्दों की परिभाषाओं को भी स्थिर करने का प्रयत्न किया है । उदाहरणत: बोधि-सम्यग्दर्शन की प्राप्ति (2.9), समाधि-निविषयता से बोधि को धारण करना (2.9), संकल्प-ममत्वरूप परिणाम (2.16), विकल्प-हर्ष विषाद रूप परिणाम (2.16), निरंजन-वर्ण, गंध, रसादि रहित (2.19-21), मंत्र, यंत्र, मंडल, मुद्रा (2.22), दर्शन-निजात्मा को देखना (2.41), संयमी-शांतभावावस्था (2.41), सुखी-निज स्वभाव में स्थिर (2.43), बंधु-ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध (2.44), गहिलु-पागल (2.44), ज्ञानी-पात्मज्ञानी (2.47-88), परममुनि-वीतरागी (2.50-2), निर्वरण-पुण्य-पाप का नाश (2.63), धर्म के विविध अर्थ (2.68), तीर्थ (2.85), समभाव (2.100), अहिंसा-रागादि भावों का प्रभाव (2.125), अभयदान-स्वदया-परदया (2.127), गुरु (2.130), योगी (2.160), परमसमाधि-समस्त विकल्परहित अवस्था (2.189.90), वैराग्य-शुद्धात्मानुभूति स्वभाव (2.192), तत्त्वज्ञान-शुद्धात्मोपलब्धि (2.192), अरहंत-भावमुक्त, जीवनमुक्त, केवल ज्ञानी आदि । इन शब्दों को संत-परम्परा में भी आसानी से देखा जा सकता है । उनकी परिभाषाएं भी लगभग इसी रूप में हुई हैं । ___ इस प्रकार योगीन्दु की परम्परा एक ओर जहां जैन कवियों को मान्य रही है वहीं दूसरी ओर सन्त कवियों ने भी उसे पूरी तरह से पचा लिया है । संत-साहित्य की जो भी विशेषताएं हैं, वे प्राय: योगीन्दु से प्रभावित हैं, इसे नकारा नहीं जा सकता । योगीन्दु की परम्परा को सुदृढ़ करनेवालों में मुनि रामसिंह, आणंदा, आनन्दघन, बनारसीदास, भूधरदास,
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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