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________________ जनविद्या 35 जोइन्दु की भाषा में जिस माधुर्य का समावेश हो गया है वह अन्य रचनाकारों की भाषा में उपलब्ध नहीं होता । यह सत्य है कि इस ग्रन्थ में जोइन्दु का कवि की अपेक्षा तत्त्वचिंतक रूप ही अधिक उभरा है और रस मीमांसकों को इससे तुष्टि नहीं हो सकती फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि यह रचना नितान्त शुष्क, नीरस और काव्य-तत्त्व से हीन है । वस्तुतः जिस तत्त्व, तथ्य, ज्ञान और अनुभव को इन्होंने अपनी परिष्कृत और काव्यमयी भाषा में प्रकट किया है उससे इनकी काव्यक्षमता और भाषाक्षमता भली-भांति स्पष्ट हो जाती है । अपने युग के महान् विचारक, तत्त्वद्रष्टा, कवि और क्रांतिकारी पुरुष के रूप में जोइंदु भारतीयसाहित्य में सदा स्मरणीय रहेंगे । राएँ रंगिए हियवडए देउ ण दीसइ संतु । दप्पणि मइलए बिबु जिम एहउ जाणि णिभंतु ॥ ___ अर्थ—जिस प्रकार मैले दर्पण में बिंब स्पष्ट दिखाई नहीं देता उसी प्रकार राग से रंगे हुए हृदय में रागरहित आत्मदेव दिखाई नहीं देता, ऐसा निस्सन्देह जान । परमात्मप्रकाश 1.120
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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