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________________ मूढमान्यता हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु । हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मूढउ मण्णु ॥ हउँ वर बंभणु वइसु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु । पुरिसु णउंसर इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु ॥ तरुणउ बूढउ रुयडउ सूरउ - पंडिउ दिन्छ । खवरणउ वंदउ सेवडउ मढउ मण्णइ सव्वु ॥ अर्थ-मैं गोरा हूँ, मैं काला हूँ, मैं ही अनेक वर्णवाला (रंगवाला) हूँ। मैं तन्वंगी (पतले शरीरवाला) हूँ, मैं स्थूल हूँ, इस प्रकार माननेवाले को मूढ़ मान । मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, शेष (शूद्र आदि) मैं हूँ । मैं पुरुषनपुंसक-स्त्री हूँ, मूढ (इस प्रकार) अपने को विशेष मानता है । मैं तरुण हूँ, बूढ़ा हूँ, रूपवान हूँ, शूरवीर हूँ, पण्डित हूँ, श्रेष्ठ हूँ। मैं जैन साधु हूँ, वंदक हूँ, श्वेतपटी हूँ, मूढ यह सब मानता है । परमात्मप्रकाश 1.80-82
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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