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________________ जैनविद्या दृष्टान्त-दुष्टों का साथ छोड़ो । लोहा आग से मिलने पर घन से पीटा जाता है। 2.109 तृतीय विभावना-वे ही धन्य हैं, वे ही सज्जन हैं जो यौवन के सरोवर में पड़कर भी लीला से उसे तैर जाते हैं । 12.117 रूपक-हे जीव ! इन्द्रिय रूपी ऊंट को स्वेच्छा से मत चरने दो क्योंकि विषय-वन में चरकर यह तुम्हें संसार में ही पटक देगा। 2.136 छन्द-परमात्मप्रकाश का मुख्य छन्द दोहा है । यद्यपि इसमें पांच प्राकृत गाथाएँ, प्राकृत में एक मालिनीवृत्त और अपभ्रंश में एक स्रग्धरा छंद है फिर भी प्रधानता दोहों की ही है । दोहा अपभ्रंश का सर्वाधिक लोकप्रिय छंद रहा है । बौद्ध और जैन, दोनों सम्प्रदायों के कवियों ने दोहा छन्द का प्रयोग समान रूप में किया है । सिद्ध सरहप्पा ने दोहा छन्द के सम्बन्ध में लिखा है दोहा संगम मइ कहिनउ, जेहु बिबुझिन तथ्य ॥ दोहाकोश, 109 प्राकृत में विक्रमोर्वशीय के चतुर्थ अंक में दोहा छन्द प्रयुक्त हुआ है। यदि हम इसे प्रक्षिप्त भी मानलें तो भी इतना निर्विवाद है कि 8वीं शती में इसका प्रचलन प्रारम्भ हो गया था और दसवीं-ग्यारहवीं शती तक यह बहुत प्रचलित छन्द हो गया था क्योंकि पश्चिमी अपभ्रंश की रचनाओं में इसका प्रयोग बहुलता से मिलता है । ऐसा अनुमान किया गया है कि इसकी परम्परा पश्चिमी प्रदेशों से प्रारम्भ हुई है । प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'छन्दोऽनुशासन' में एक संस्कृत दोहे का उद्धरण दिया है। इससे ज्ञात होता है कि संस्कृत में भी कभी इसका व्यवहार होता होगा। हेमचन्द्र ने 13-11 के क्रम से कुसुमाकुलमधुकर (6/20/36) नामक छन्द का उल्लेख किया है जिसे कविदर्पण (2/15), प्राकृत पैंगलम (1/78) स्वयंभू छन्द (6/70) आदि में दोहक कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि 'प्राकृत पैंगलम' की रचना के समय चौदहवीं शती में दोहे का 13, 11 मात्रा का क्रम निर्देशित हया और लघु-गुरु के आधार पर इसके अनेक भेद बताये गये । कीतिलता, सन्देशरासक तथा अपभ्रंश की स्फुट रचनाओं में दोहा का प्रयोग व्यापकरूप में हुआ है। 'परमात्मप्रकाश' में दोहे का 13, 11 मात्रा का क्रमवाला रूप ही उपलब्ध होता है, यद्यपि कहीं-कहीं 14, 11 (छन्द 34) का क्रम भी प्राप्त हो जाता है। ऐसा मुद्रण की भूल से भी सम्भव है । जोइन्दु की भाषा लोकभाषा का रूप प्रस्तुत करती है । यद्यपि इसकी भाषा पश्चिमी शौरसेनी अपभ्रंश है तथापि उसमें देशी शब्दों का प्रयोग भी उपलब्ध होता है । उस समय यह परम्परा बन चुकी थी कि पदों में स्थानीय बोली तथा दोहों में शौरसेनी अपभ्रंश का प्रयोग किया जाय क्योंकि यह भाषा दोहों में मंज चुकी थी। लोकभाषा के निकट होने के कारण
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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