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________________ 8 श्रप्पा लखउ गारगमउ कम्म- बिमुबकें जेण । मेल्लिवि सलु वि दव्यु पर सो पर मुणहि मणेण || जोइन्दु निश्चय नय से जीव को ही परमात्मा मानते हैं अरहंतु विसो सिद्ध फुडु सो प्रायरिउ वियारिण । सो उवझायउ सो जि मुणि रिगच्छइँ अप्पा जाणि ॥ एहु जो अप्पा सो परमप्पा कम्म-विसेसं जायउ जप्पा | जाई जारइ श्रप्पें अप्पा तामइँ सो जि देउ परमप्पा ॥ यो. सा. 104 प्रत्येक जीव में परमात्मत्व के बीज व्याप्त हैं । आवश्यकता है इसके स्वरूप को ठीकठीक पहिचानने तथा समस्त कर्म - पुद्गलों को क्षय / उच्छेद करने की अर्थात् समस्त बंधनों से मुक्त होने की । वस्तुतः कर्मयुक्त जीव संसारी तथा कर्ममुक्त जीव मुक्तात्मा / सिद्धात्मा / परमात्मा कहलाते हैं । यथा— जैनविद्यां प. प्र. 1.15 प. प्र. 2.174 आत्मा जिसका वास्तविक स्वरूप- अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख, शक्ति का पुंजीभूत रूप जो कर्मावरण से प्रच्छन्न था— जब तप साधना तथा ध्यान आराधना के माध्यम से प्रकट होता है तब वह परमात्मा कहलाता है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जीव के आध्यात्मिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था आत्मा की और विकास की अन्तिम स्थिति परमात्मा की होती है । जम्मरण - मरण- विवज्जियउ चउ गइ दुक्ख केवल दंसण- गाणमउ णंवइ तित्थु जि जोइन्दु 'परमात्मा' को (ब्रह्म) कहते हैं । उनका ब्रह्म बार-बार जन्म-मरण से मुक्त अर्थात् सांसारिक सुख-दुख से पूर्णतया निवृत्त अपने वास्तविक - विशुद्ध स्वरूप में रमण करता हुआ, अनन्त आनन्द का भोक्ता है, वह न तो वेदान्त दर्शन की भाँति 'ब्रह्मस्वरूप' में लीन है, न सांख्य दर्शन की भाँति प्रकृति को तटस्थ भाव से देखता रहता हैं, न निर्वाण व शून्य को प्राप्त होता है और न ही वह इस जगत् का निर्माता, ध्वंसकर्त्ता श्रौर भाग्यविधाता बनता है अपितु संसार से पूर्णत: निर्लिप्त, वीतरागता से परिपूर्ण अपने ही स्वरूप में स्थित होता जाता है । वह स्वाभाविक ऊर्ध्वगति के कारण लोक-शिखर पर जिसे सिद्ध-शिला कहा जाता है, अवस्थित हो जाता है जहां वह अनन्त काल तक अनन्त प्रतीन्द्रिय सुख का उपभोग करता हुआ अपने चरमशरीर से कुछ न्यून आकार में स्थिर रहता है। ज्ञान ही उसका शरीर होता है । यथा विमुक्कु । मुक्कु ॥ प. प्र. 2.203
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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