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जोइन्दु की परमात्मा-विषयक धारणा
- श्री राजीव प्रचंडिया
जैन काव्य साहित्य का लक्ष्य मानव-जीवन में रूढ़ि, अज्ञान-तमस को दूर कर उसमें ज्ञान राशि का संचयन करना रहा है जिससे संसारी प्राणी निरर्थक भोग की अपेक्षा सार्थक योग में रमे अर्थात् कषाय-कलापों की मजबूत पकड़ छूटता हुआ वह जीवन की गति को श्रेष्ठ / शुद्धतम बना सके । वास्तव में इस साहित्य ने जनमानस के अन्तस् को प्रेम और समता से अभिसिंचित किया है तथा सोयी हुई चेतना को झंकृत कर आत्म-शक्तियों को प्रस्फुटित कर शाश्वत सुख / अनन्त आनन्द का द्वार भी खोला है ।
जोइन्दु जैनदर्शन से अनुप्राणित अपभ्रंश भाषा के एक सशक्त आध्यात्मिक कवि हैं जिन्होंने अपनी प्रमुख रचनाओं 'परमात्म प्रकाश' और 'योगसार' के माध्यम से 'आत्मा' के वास्तविक स्वरूप स्थिति का उद्घाटन किया है । जोइन्दु ने परमात्मा के सम्बन्ध में जो धारणा अभिव्यक्त की है वह सर्वथा जैन परम्परानुमोदित है ।
विश्व की व्यवस्था का मूलाधार 'जीवतत्त्व' है । शरीर, मन और वचन की समस्त शुभ-अशुभ क्रियाएं इसके द्वारा ही सम्पादित हुआ करती हैं । जब यह संसारी दशा में प्राणधारण करता है तब 'जीव' कहलाता है अन्यथा ज्ञान-दर्शन स्वभावी होने के कारण यह 'आत्मा' से संज्ञायित है । जीव के आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अर्थात् शुद्धतम कर्म - वियुक्त अवस्था परमात्मा कहलाती है । यथा