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________________ जनविद्या कर्मबंध की तीव्रता-मन्दता, आत्मस्वरूप के प्रकटीकरण अर्थात् आत्मविकास की दशा के आधार पर जोइन्दु 'जीव' की तीन स्थितियां निर्धारित करते हैं—एक स्थिति में आत्मज्ञान का उदय नहीं होता है, दूसरी में आत्मज्ञान का उदय तो होता है किन्तु राग-द्वेष आदि काषायिक भाव अपना प्रभाव थोड़ा बहुत डालते रहते हैं तथा तीसरी में ज्ञानावरणादि 'द्रव्यकर्म', रागादि 'भावकर्म' तथा शरीरादि 'नोकर्म' का पूर्ण उच्छेदन अर्थात् प्रात्मस्वरूप का पूर्ण प्रकटीकरण होता है । पहली स्थिति मूढ/बहिरात्मा अर्थात् मिथ्यादर्शी की, दूसरी स्थिति विचक्षण/अन्तरात्मा अर्थात् समदर्शी की तथा तीसरी स्थिति ब्रह्म/परमात्मा अर्थात् सर्वदर्शी की कहलाती है । यथा मूढ़ वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ । देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ हवेइ ॥ प. प्र. 1.13 __ इस प्रकार संसारी जीव का निकृष्ट अवस्था से उत्कृष्ट अवस्था पूर्ण विकास तक एक क्रमिक विकास है । प्रात्मा का यह क्रमिक विकास गुणस्थान कहलाते हैं जो मिथ्यादृष्टि आदि के भेद से चौदह होते हैं। इनमें से होकर जीव को अपना आध्यात्मिक विकास करते हुए अन्तिम लक्ष्य/साध्य तक पहुँचना होता है। इन गुणस्थानों में मोहशक्ति शनैः-शनैः क्षीण होती जाती है और अन्त में जीव मोह-आवरण से निरावृत होता हुआ निष्प्रकम्प स्थिति में पहुँच जाता है । गुणस्थानों में पहले तीन स्थान में बहिरात्मा की अवस्था का, चतुर्थ से बारहवें स्थान तक अन्तरात्मा की अवस्था का तथा तेरहवें एवं चौदहवें स्थान में परमात्मा की अवस्था का निरूपण है। कोई भी व्यक्ति इस 'विकास-पथ' का अनुसरण कर परमात्मा बन सकता है। जोइन्दु परमात्मा को अनन्त गुणों का आगार मानते हैं । शंकर, विष्णु, रुद्र, परमब्रह्म, शिव, जिन, बुद्ध आदि उसी के नामान्तर है । यथा सो सिउ संकरु विण्हु सो सो रुद्द वि सो बुद्ध । सो जिणु ईसह बंभु सो सो प्रणंतु सो सिद्ध ॥ यो. सा. 105 जो परमप्पउ परम-पउ हरि हरु बंभु वि बुद्ध । परम पयासु भणति मुणि सो जिण-देउ विसुद्ध ॥ प. प्र. 2.200 वे परमात्मा को उपनिषदों के ब्रह्म की भाँति एक नहीं अपितु अनेक मानते हैं तथा इनमें परस्पर कोई अन्तर भी नहीं स्वीकारते । समस्त परमात्मा अपने आप में स्थित एवं पूर्ण स्वतंत्र हैं, वे किसी अखंडसत्ता के अंश रूप नहीं हैं । इस प्रकार संसार अवस्था में शुद्ध द्रव्याथिक नय से समस्त जीव शक्तिरूप से परमात्मा कहलाते हैं । यथा
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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