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________________ 84 जनविद्या बन्धुदत्त द्वारा निर्जन और हिंसक जानवरों से युक्त बीहड़ मैनागद्वीप पर भविष्यदत्त को छोड़ दिये जाने पर जहाजस्थ बन्धुदत्त के हितैषी वणिक्जन भी इस क्रूरतम कृत्य की भर्त्सना करते हैं और एक स्वर से बोल उठते हैं-"यह अच्छा नहीं हुआ । हम सबका वाणिज्य निष्फल गया, अरे, यह तो हमारे साधुपन की लज्जा का व्यापार हुआ है। मैनागद्वीप पर भविष्यदत्त का कोई नहीं है और अब यहाँ हमारा भी कोई नहीं रहा, न यात्रा, न धन, न मित्र, न घर, न धर्म, न कर्म, न जीव, न शरीर, न पुत्र, न पत्नी, न इष्टजन और न ही देव क्योंकि अधर्म ने धर्म को नष्ट कर दिया है और धर्म के नष्ट होने से सभी कार्य प्रकार्य हो जाते हैं। वास्तव में इस दुष्ट बन्धुदत्त ने यह दुष्कृत्य भविष्यदत्त को मारने के लिए ही किया है ।"18 . बन्धुदत्त के सहयोगीजनों द्वारा कही गई यह बात वस्तुतः निश्छिल नैतिकता का प्राभास कराती है । कितना मार्मिक दृश्य है मानो नैतिकता का ख्याल कर सभी अन्दर ही अन्दर रो पड़े हों। परन्तु इससे क्या ? अन्याय का प्रतिकार न कर पाने से उनकी नैतिकता निष्फल रही है । यदि वे चाहते तो बन्धुदत्त को पुनः मैनागद्वीप पर जहाज खड़ा करने के लिए बाध्य कर सकते थे। मेरा सोचना है कि लोकोपकारिणी नैतिकता जब फलोन्मुखी होकर किसी व्यक्ति में अपने संस्कार जमा लेती है तो वह निःसन्देह ही इन्द्रियलम्पटता से बचकर विषयवासनाओं का गुलाम नहीं बनता तथा व्रताचरण से अपने देहाश्रित जीवन का सदुपयोग करता है जिससे सहज स्व-परकल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। धनपाल के इस कथाकाव्य में भविष्यदत्त तो इसका उदाहरण है ही, अन्य पात्र भी तदनुरूप दिख जाते हैं। निश्छल, निष्कम्प और निर्द्वन्द्व व्रताचरण अपने अनुधर्ता के धार्मिक होने का पुष्ट प्रमाण तो है ही तदनुवर्ती परिवेश या समाज को भी धार्मिक व्यपदेश से अलंकृत करने में पीछे नहीं रहता । वस्तुतः समाज की यह ब्याजस्तुति शनैः शनैः ही सही पर निश्चित ही ऐसे सपूतों को उद्बोधित करती है जो निराकुलसुखलाभार्थ धर्मसाधनानुकूल व्रताचरण को अपना लेते हैं । संभव है इसी महत्त्व को हृदयस्थ कर धनपाल ने अपने काव्य में ब्रताचरण से गुम्फित सहज धार्मिक परिवेश निर्मित करने का संकल्प किया हो । यथावसर तो वे महाव्रतधारी मुनिजनों को सामाजिकों के सद्बोधनार्थ उपस्थित कर ही देते हैं किन्तु तिलकपुर में मुनि द्वारा श्रावक के अष्टमूलगुण एवं पंचअणुव्रतों का उपदेश दिलाकर कवि ने व्रताचरण को वास्तविक उपादेयता समाजजनों के समक्ष पुरस्थापित कर महनीय कार्य किया है। व्रताचरण के सुरभित अग तपश्चरण के बल से समुपाजित ज्ञाननिधि द्वारा मुनिजन प्राणियों के पूर्वोत्तर भवों के वृत्तान्त जान लेते हैं तथा उचितानुचित का विस्तार कर यथावसर उसकी अभिव्यक्ति भी कर देते हैं । ऐसा होने पर प्राणी सहज ही धर्मसाधना में जुट जाते हैं । भविसयत्तकहा में भी मनोवेग और भविष्यदत्त के परस्पर प्रेम की श्रृंखला
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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