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________________ जैनविद्या 83 जैन सिद्धान्तानुसार जीव के दुःख का प्रमुख कारण कर्म माना गया है । भविसयत्तहका भी ऐसा ही कहती है क्योंकि उससे ध्वनित होता है कि यह जीव कर्मों को करके तदनुरूप कर्मकारणों परिपाकवश संसार में परिभ्रमण करता है 10 तथा स्वकृतकर्मानुसार उसे अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों का सामना करना पड़ता है । शुभकर्म अनुकूलता तथा प्रशुभकर्म प्रतिकूलता प्राप्ति के कारण बनते हैं । धर्म एवं उसकी साधना में सहयोगी कर्म शुभ माने गये हैं जिनका प्राचरण कर जीव अशुभ कर्मों से अपनी व्यावृत्ति कर लेता है । पुनश्च पुरुषार्थ की प्रबलता में अवशिष्ट समस्त शुभाशुभ कर्मों को तपश्चरण से प्रज्वलित घ्यानाग्नि में दग्धकर मुक्त हो जाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कर्मवाद पर धनपाल की दृढ़ आस्था है जिसकी पुष्टि कथापात्रों द्वारा सहज होती है । निदर्शनार्थ इतना ही पर्याप्त है 1. पूर्वजन्म में कमलश्री ने गुरु की गर्हणा से धर्म का विनाश कर अशुभ कर्म बांधे थे । 11 वस्तुत: इन्हीं अनिष्ट कर्मों का उदय आने पर उसके वात्सल्य, प्रियवचन और कोमलता आदि गुणों से खीझकर सेठ घनवई, जो कमलश्री का पति है, का मन फिर जाता है और वह उसे छोड़ देता है । 12 2. बन्धुदत्त के साथ कंचनपुर न जाने हेतु जब कमलश्री भविष्यदत्त को समझाती है तो वह नाना प्रकार से कर्मवाद पर प्रास्था प्रकट कर कहता है कि जब मेरा भाग्य ही प्रतिकूल होगा तो यहाँ भी कोई अच्छा कैसे कर सकेगा ? 13 3. मैनागद्वीप पर अकेला छूट जाने पर भविष्यदत्त सोचता है कि शतगुणों से परिपूर्ण विदग्ध व्यक्ति का भी दैव जब पराङ्मुख हो उठता है तो वह क्या कर सकता है 114 4. चारणऋद्धिधारी मुनिराज उपदेश देते हैं कि प्रशुभकर्मों के क्षयकारक, मधुर, प्रिय एवं निरपेक्ष धर्म को तुम जानो 115 फलस्वरूप तदनुकरणपरिणति हमें पात्रों में दिखाई देती है । हम मानते हैं कि पात्रों में नैतिकता का निर्वहरण किसी भी रचना के स्वस्थ एवं सुन्दर धार्मिक परिवेश के लिए अत्यावश्यक तत्त्व है । धनपाल ने तदर्थ नैतिक नैतिक श्राचरण का तुलनात्मक दृश्य उपस्थित कर धार्मिक परिवेश की सहजानुभूति कराने का उद्यम किया ही है । वह धर्म ही क्या जो लोकोदात्त भावनाओं से परे हो, जहाँ क्रोध, मान, ईर्ष्या श्रादि की ज्वालायें मनःसंताप का कारण बनती हों अथवा मानव मानव के अनर्थ का कारण हो । भविसयत्तकहा में कमल श्री - सरूपा, भविष्यदत्त - बन्धुदत्त आदि पात्र परस्पर नैतिकानैतिक श्राचरण की तुलनात्मक अनुभूति कराते हैं । विदेशगमन के अवसर पर कमलश्री की भविष्यदत्त को दी गई शिक्षा 16 तथा सरूपा द्वारा बन्धुदत्त को दी गई क्रूरतम सलाह 17 इसका एक निदर्शन है ।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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