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________________ जैनविद्या व्रतोद्यापन के समय श्रुतपूजन आदि का प्रसंग उपस्थित करके भी इसकी पूर्ति की जा सकती थी । ऐसा करने पर अर्थात् देव और गुरु भक्ति के साथ श्रुत भक्ति का भी समावेश कर देने से वे देव शास्त्र - गुरु की उपासना को समान महत्त्व दे पाते। वैसे भी श्रुतभक्ति का प्रतिपाद्य श्रुतपंचमीफल प्रभावक होने से भविसयत्तकहा के लिए अत्यावश्यक एवं अपरिहार्य था, जिस ओर कवि का ध्यान ही नहीं गया। क्यों ? यह विचारणीय है। देव भक्ति और गुरु-भक्ति का निर्वाह भी जहाँ हुआ है वहाँ भावप्रवणता एवं रसास्वादन के लिए कोई स्थान नहीं है । प्रायः यही दर्शाया गया है कि कोई पात्र विशेष देवपूजन, वन्दना, नमस्कार आदि के माध्यम से भक्ति में रत है। भक्ति की प्रक्रिया तथा उसमें भक्त का श्रानन्दविभोर हो उठना, मस्ती में झूमने लगना तथा गुणानुवाद के साथ गुणग्राहकता के लिए उत्कण्ठित होना आदि प्रदर्शित नहीं किया गया है । यदि कवि को थोड़ा भी अवकाश मिला है तो उसने वहाँ उपदेशात्मक या वर्णनात्मक सन्दर्भ जोड़ दिये हैं जो प्रायः भौतिक और शाब्दिक प्रतीकों तक ही सीमित हैं । यहाँ यह भूलना भी उचित नहीं होगा कि धनपाल ने इसे भक्तिकाव्य के रूप में नहीं लिखा है अपितु भक्ति के प्रसंग स्वयमेव कथा की धारा से यत्किचित् रूप से जुड़ गये हैं और अपने यदवस्थित परिवेश से जैनधार्मिक होने की पुष्टि कर रहे हैं जिनमें से प्रमुखता के आधार पर कुछ का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है 82 1. पुत्रोत्पत्ति के एक माह बाद कमलश्री का पुत्र को गोद में लेकर जिन मन्दिर जाना और जिनवर की पूजन करना 15 2. मदनागद्वीप में अकेला छूट जाने पर भविष्यदत्त द्वारा वन में भटकना, हाथ पैर धोकर शिला पर आसीन होना तथा जिनदेव के स्मररंग- पूर्वक पुष्पांजलि क्षेपण श्रादि से अर्चना करना । पुनश्च सन्ध्या हो जाने पर पंच परमेष्ठियों को हृदय में धारण कर परमपद का ध्यान करते हुए रात्रि बिताना । 8 3. तिलकपुर में चन्द्रप्रभ जिनमन्दिर मिलने पर भविष्यदत्त द्वारा चन्द्रप्रभजिन की भक्तिभाव से पूजा किया जाना । 7 4. भविष्यानुरूपा को दोहला होने पर भविष्यदत्त का सपरिवार तिलकद्वीप पहुँचना तथा जिन मंदिर में सभी के द्वारा भक्तिपूजनादि करना । 8 5. चारणऋद्धिधारी मुनि के सविनय दर्शन कर उनके पैर पूजना आदि । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कवि ने कथा प्रवाह के अनुरूप यथावसर मुनिजनों का -समागम तो कराया है पर एकाधस्थल को छोड़कर पात्रों द्वारा उनके प्रति भक्ति का चित्र वन्दना श्रादि के रूप में उपस्थित नहीं किया, सीधे ही प्रश्नों के समाधान की जिज्ञासा व्यक्त हो गई है ।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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