SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विद्या 81 १ अधिक सरलता अनुभव कर कौन सा अपराध किया है ? कोई नहीं न ? तो यह मानिये कि धनपाल ने धर्म को शब्दाडम्बर से नहीं जीवन के प्रायोगिक पहलुनों से समझने पर अधिक बल दिया है । यह एक अलग बात है कि उनने अपने इस काव्य से जिन प्रायोगिक पहलुओं को समाविष्ट किया है भले ही वे हमें अपरिचित और प्राकर्षक न लगें पर उनने समूचे काव्य को एक परिपुष्ट धार्मिक परिवेश प्रदान करने में कोई कसर नहीं रखी है । भविसयत्तका को मात्र नयनाभिराम ही नहीं मननाभिराम बनाने पर हम पायेंगे कि कवि ने अपने कथा-पात्रों को भक्ति, कर्मवाद पर श्रास्था व्रताचरण एव नैतिकता निर्वहन के रंग में रंग कर इस प्रकार प्रदर्शित किया है कि पाठक उनके धार्मिक होने में कोई सन्देह नहीं कर सकता । फलतः एक धार्मिक परिवेश की अनुभूति उसे होने लगती है, जो स्पष्टत: जैन संस्कृति, दर्शन, धर्म एवं समाज से प्रभावित है भविसयतका के धार्मिक परिवेश पर जैनत्व का प्रभाव तथा सम्यक्त्वविशिष्ट पापकलंकमल शून्य जिनशासनोक्त श्रुतपंचमी के फल को उजागर करनेवाली कथा सुनाने हेतु पाठकों को दिया गया कवि का निर्देश, ग्रंथारम्भ में दिया गया मंगलाचरण, प्रत्येक संधि के प्रारंभ में विहित वन्दनायें एवं यत्र-तत्र संवेदनशील स्थलों पर जैन परिवेश का स्पष्ट उल्लेख इस बात के पुष्ट प्रमाण हैं कि कवि जैनधर्मावलम्बी था । यहाँ हम यह भी उल्लेख कर देना चाहेंगे कि कवि अपने समूचे काव्य में मात्र आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभजिन एवं चन्द्रप्रभजिनालयों का ही उल्लेख करता है जो अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के प्रति उसके विशेष अनुराग का प्रतीक हैं । कारण कुछ भी हो पर सार्थक एवं मनोविचारित अवश्य होना चाहिये क्योंकि शांतिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ इन तीन-तीन तीर्थंकरों की आवासस्थली के रूप में गजपुर ( हस्तिनापुर ) की उत्कृष्टता स्वीकार करके भी उनका तथा वर्तमान में जिनकी शासनप्रभावना है उन तीर्थंकर भगवान् महावीर का कवि द्वारा कहीं भी किसी भी रूप में किंचिदपि उल्लेख न किया जाना निश्चित ही कुछ सोचने को बाध्य करता है । धार्मिक परिवेश की अभिव्यक्ति के लिए भक्ति का सन्दर्भ एक सशक्त माध्यम होता है अतः इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम प्रकृत कथाकाव्य को कसौटी पर कसें तो कहना पड़ेगा कि धनपाल, श्रुतपंचमी व्रत के फल को प्रदर्शित करनेवाली कथा लिखकर भी भक्ति का प्रौचित्य नहीं बता सके हैं। श्रीचित्य बताना तो दूर श्रुतभक्तिमूलक कोई निर्जीव शब्दचित्र भी हमें उनके काव्य में दृष्टिगोचर नहीं होता । यदि वे चाहते तो कमलश्री द्वारा श्रुतपंचमी व्रत ग्रहण किये जाने के अवसर पर प्रार्यिका अथवा मुनिश्री के माध्यम से श्रुत के महत्त्व को बताते हुए व्रतानुपालन के विधान में श्रुतभक्ति की आवश्यकता निर्धारित कर श्रुतभक्ति का सन्दर्भ अपने काव्य में जोड़ सकते थे अथवा
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy