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जैनविद्या
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पूर्वभवाश्रित है यह प्रतिपादित हुआ है जिसका सविस्तार वर्णन करने के उपरान्त मुनिश्री सभी को संसार की असारता तथा भौतिक वैभव को चंचल और प्रशाश्वत बताते हुए वह कार्य करने को प्रेरणा देते हैं जिससे परम-पद प्राप्त हो ।20 इससे फलित होता है कि प्राणियों का परस्पर प्रेम अथवा बैर जन्मजन्मांतर तक बना रह सकता है जो विशुद्ध रूप से सांसारिक प्रपंच है तथा प्रसारभूत होने से सर्वथा त्याज्य धर्मधरा के ध्यान हेतु कितनी मार्मिक और सूक्ष्म प्ररूपणा हो गई है यहां ! पुनश्च वे भविष्यदत्त के पूर्वभवों का वर्णन करके प्रव्रज्या का महत्त्व22 बताते हैं फलस्वरूप भविष्यदत्त सर्वविध प्राभूषणों को उतारकर पंचमुष्टि से केशलुंचन कर महाव्रतों का अनुकरण करता है । कितना महान् होगा वह अनुकरण जो राजवैभव प्रादि को तृण-तुल्य समझता है तथा कितनी महान् होगी वह विराग परिणति जिसके बल से महाव्रत पलते हैं ! यही है धर्म का अभिव्यंजन तथा सुसुप्त शक्तियों का जागरण ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कथा के अविरुद्ध प्रवाह में व्रताचरण का निर्वाह काव्य में समाविष्ट धार्मिक परिवेश को साकार कर रहा है।
_ निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भविसयत्तकहा का धार्मिक परिवेश पूर्णतः शिथिलाचार निरोधक, विशुद्ध, स्वस्थ एवं स्वच्छ परम्परामों का पोषक है । इस छोटी सी कथा के सहारे कवि ने विपुलतया समीचीन जैन सिद्धान्तों का निर्वहण कर प्रस्खलित एवं वैराग्यमूलक धार्मिक परिवेश को परिपुष्ट किया है जो एक प्रशंसनीय कृत्य है और विद्वज्जनों द्वारा स्तुत्य ।
1. 14वीं शताब्दी, डॉ. दे. कु. शास्त्री, भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य 2. भविसयत्तकहा 22.11 3. वही, 1.1 4. वही, 1.6 5. वही, 1.16 6. वही, 4.3.4 . 7. वही, 4.11-14 8. वही, 15.16-17 9. वही, 16.4-5 10. वही, 18.1 11. वही, 5.2 12. वही, 2.4