SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विद्या कर मउलि करेवि कर्वाड पर विप्पिणु सिरिरण । संखुहियमरणेण जंप जंपिउ किंपि सगग्गरिग । तहो जंपतो वयणु पलोइवि थिय कवोलि करयलु संजोइवि । नउ सुंदर चवंतहो वयरगई, थोरंसुर्याह निरुद्धई नयई । कि संघट्ट् बिरु चितिए प्रकुसलु किंपि जाउ विणु भतिए । हा विवरीउ जाउ विहि बुट्ठिय रुलुघुलंति सहसत्ति समुट्ठिय । घमि न पत्त समुभियवाहिहि श्रद्धवहिज्जि विणिग्गयधा हिहिं । हा पुत्त पुत उक्कंठियह घोरंतरि कालि परिट्ठियहि । को पिक्afa मणु प्रभुद्धरमि महि विवरु बेहि जि पइसरमि । हा पुव्वजम्मि किउ काई मई निहिवंसरिग जं नयरगई हयई । हा पुत्त नयरि बद्धावरणउं महु दोराहि वयणु दयावरणउं । मिलिय सयलसयरहं सयरग हउं मुद्ध एक्क पर वीरमरण । हा पुत्त बाल कीलई सुहइं एवह ताइंमि विनतु मई । हा 65 8.11.9-10 परियरिग पियवयरिहि जणु रंजइ साहु विचित्तगुणेहिं प्रणुहुंजइ । जाई पियमुह सुहवा मोहणु मरिण चितिउ सह सुरयारोहणु । ललिउ ईसि ईसि अवर उणु प्रहरकवोलकंठउरखंड | मुह सिक्कारकरिणरउरकंपणु सरहसु ससलिलरमरणसमप्पणु । कररुहपंतिपुलयपरिजंवणु परणयरोसमय रोस निरु भणु । बोरणाला वरणगेयपरिक्खणु कुडिलवियारि सरोसनिरिक्खणु । दिन्नपहरपपिहरपच्छिणु प्रलयगाहपडिगाहसमिच्छन् । विग्भमभावफुरियनहरेक्खणु मंदरायबहुराय वियक्खणु । पियपरिहासवासविहडावणु मयणुक्कोवरगुपयडावणु । बंधकररणवावारवियंभणु सुहकरकंससमयरसथंभणु । और विभाव-सौन्दर्य "संभावना" का विषय है 8.12.4-10 8.13 afe प्राणु होविणु घाइउ मं परभवरिण बोसु उप्पायर । तो वरि कवि विरण पडिवालिवि पच्छइ ममि बेहु प्रप्फालिवि । 8.16.2-3 रति तथा सजातीय भाव - 'संयोग शृंगार' का एक 'भौतिक चित्र' तब दीख पड़ता है जब कवि धनपति को अपनी दूसरी पत्नी के रति-वीचि विलास में प्राकंठ निमग्न होने के वर्णन का उपक्रम करता है । समग्र चित्र 'हाव', 'भाव', 'हेला', 'विभ्रम', 'पुलक', 'परिहास', 'रभस', 'रोष', स्पर्श' प्रादि से दीप्त है और 'प्रालिंगन', 'सीत्कार' 'हृदय कंप', 'समर्पण', 'बन्धकरण' आदि से ध्वनित 3.3
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy