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________________ 66 जैनविद्या पुषिणमइंदरदससिवयणी दंतपंतिपहपहसियवयणी । सयलकलाकलावसंपुग्णी पहिणवलच्छि नाइं प्रवइण्णी । बालमराललोलगइगामिरिण सा किय णियपरिवारहो सामिणि। 3.2 'पूर्वानुराग' का एक 'व्याधि-चित्र' तब उभरता है जब 'वज्जोयर' की दुहिता 'धनमित्त' के अनुराग में 'अभिलाषा' 'चिन्ता', 'अरुचि', 'जड़ता', 'शून्यता', 'संताप', 'गुणकथन', 'निद्राच्छेद', 'पानाश', 'विषय-निवृत्ति', 'नयन-प्रीति', 'तनुता' प्रादि अवस्थाओं को पार करती हुई 'मदनवेश', 'अंगवक्रता', 'बालचुंबन' आदि कार्यकलापों द्वारा प्राकर्षण का अथक प्रयत्न करती है बालकुमारहो समुहुं पलोई परिणमिसनयण वयणु अवलोयई। ताह विहिमि अहिलसियई चित्तई बिहिमि गयई संदेहचरित्तई। यम्महसरहं विरोलिउ अंगउ चितंतिहि तहि सुरयपसंगउ । एका बाल सुरुवि सोहइ तण इज्जति निरारिउ मोहइ । दूसह मयणावेसु विबह गलि लाइवि भिउ परिउंबह । मोइअंगु वियाहिं भज्जइ पहुपंगणि पइसंति विलज्जइ। 19.3.5-11 सहियरि निक विवरणम्मरण वीसहि कि उज्जवरण किंपि सिलीसहि । किसियई तुर, मुखि बाहुलयई सिढिलइ परिभमंति मणिवलयई। केसकलाउ खंधि प्रोणल्लइ परिमोक्कतु नियंवि पायल्लइ । फुट्टा प्रहरु सुसइ मुहपंकउ नयण नउ जोयंति प्रसंकउ । 19.4 'ईर्ष्यामान' का एक 'चिन्ता चित्र' तब मिलता है जब धनपति का कमलश्री के प्रति माकर्षण मन्द हो जाता है। यह 'वितर्क', 'चिंता', 'विषय', 'विषाद', 'संदेह', 'चपलता' आदि संचारियों से सहवर्तित है तं पिक्सिवि मिल्लिय मंदरसु चलिउ पिम्मु परियत्तगुरिण। रणरणउं वहति महच्छिमइ बहुवियप्प चितवइ मणि । एउ प्रउन्न किपि प्रविसिदिउ एहउ मई ण कयाइवि विदुर । गुरणीहिमि गुणप्रत्तं तिहि सइ, उवयारिवि तुन्वयरिणहिं दूसइ । एवहिं काई करमि हउं प्रायहो, निक्कारणि विणट्ठसंकेयहो । पहिलउ दरिसिवि अतुलु सणेहु निम्मलगुणहं भरेविण देहु ।। एज्वहि कक्कस लील पयासिय किं हुम अण्ण कावि पियभासिय। . 2.5 'मति', 'विबोध' आदि भावों से रंजित 'संकीर्ण शृंगार' का एक मुखर चित्र तब दीख पड़ता है जब धनपति कमलश्री के चरणों में गिरकर क्षमायाचना करता है। हर्षाश्रुनों से चित्र पानीदार हो गया है
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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