SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या - मां तो वात्सल्यमयी होती ही है । कवि ने 'अशरण', 'अविश्वास', 'आशंका', '' दैन्य', 'विषाद', 'स्मरण', 'ग्लानि' आदि से सहवर्तित तथा 'स्वरभंग' एवं 'अश्रु' आदि -64 सात्विकों से अनुभावित एक 'उद्वेग चित्र' तब उकेरा है जब हमारा प्रमुख पात्र अपनी मां - के सामने प्रवास की अनुमति के लिए बढ़ा है । जननी कोढ़ में नई खाज को अनुभव करती हुई सिहरने लगती है तरिसुणेवि सगग्गिरवयरणी भराई जरि जलद्दियरणयरणी । हाइ पुत काई पर जपिउ सिविरगंतरि वि गाहिं महु जंपिउ । एक्क प्रकारणि कुविय वियप्यें विष्णु भरणंतु श्ररणंतु वाहु तउ बप्पें । प्रणु वितरण समउ त जंतहो रिगब्बइ खणु वि गाहि महु चित्तहो । को जारई कण्णमहाविसह श्रणुविणु दुम्मइमोहियहं । समविस महावह अतंरई वुट्ठस वित्तिहि दोहियई । आगे 'काव्याभिप्राय' से युक्त 'अरुचि', 'कृशता', 'अधीरता', 'संताप', 'व्याधि', 'प्रलाप', 'अनालंबनता' प्रादि प्रवासगत वियोग- दशाओंों से गर्भित एवं 'ग्लानि', 'दैन्य', 'मरण' आदि संचारियों से सहवर्तित एक 'अभिलाषांचित्र' कवि तब खड़ा करता है जब वह स्वयं उस 'दुहभायरण' के 'बहुदुक्खुप्पायरण' पर ग्राठ-आठ प्रसू बहाना प्रारम्भ करता है प्रच्छ दुक्ख महाविखित्ती सुप्रविधोइजालोलिपलित्ती । ग्रासणु सयणु वयणु नउ भावइ सिढिलवलय वायसु उड्डावइ । डिवायस जय कपि वियारगाह भविसयत्तु मह पंगणि प्राणहि । fe as हंमि दिवसुतं होसइ जहि सो सरहसु साइउ बेसह । क्रु एम एउ पियसंग एवह खलविहि विनडइ अंगउ । गयउरि सम्वउ तियउ सउन्नडं नियभत्तारपुत्तपरिपुन्नजं । कावि न मइ जेही दुहभायरण सुहिसयरणहं बहुदुक्खप्पायरण । एम रुनंति सरीरु किलेसह वयनियमहं उववासहि सोसह । fat fasis का ग्रह मेलहि पुत्तु 3.10 रवि किउ प्रभुद्धरणु । ग्रह संखवि दइ मरणु । 6.1 एक 'करुणोद्वेग' का चित्र कवि ने तब उभारा है जब हमारा प्रमुख पात्र प्रवास से नहीं पहुंचता है और उसके साथी पहुंच जाते हैं। उसकी माता अर्ध मार्ग में बैठकर ही धाह देने लगती है । यहां 'स्मृति', 'तिरस्कार', 'ग्लानि', 'उद्वेग', 'उत्कंठा', 'प्रलाप', 'मरण' श्रादि संचारी हैं तथा 'स्वरभंग' एवं 'प्रभु' श्रादि सात्त्विक और 'हाथों में सिर देना', 'विधि को गालियां देना', 'रास्ते में बैठकर रोने-चिल्लाने लगना', 'शैथिल्य से अधिकृत हो जाना आदि कायिक अनुभाव हैं—
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy