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________________ जैनविद्या 63 . ऐसे ही एक "हर्षोद्वेग" विनिविष्ट चित्र तब मिलता है जब उद्विग्न मां को पुत्रागमन का संदेश मिलता है । इस भावोदय की रभसपूर्ण प्रक्रिया में मां को सम्हलना कठिन हो जाता है । वह "प्रालिंगन", "प्राशीष", "अश्रु", "स्वरभंग", "पावेग", "मोह", 'जड़ता', 'शैथिल्य' से अधिकृत हो जाती है, स्तनों से दूध बहने लगता है और समुल्लाससमारोह से संवाद होने लगता है तं निसुरिणवि रहसेरण पधाइय हरिसिं निययसरीरि न माइय। सरहसु दिन्नु सणेहालिंगणु निवडिवि कम कमलहि थिउ नंदण । मुहदसणु अलहंतई नयणइं अंसु मुमाइयाइं जिह रयगई। लेवि सहत्यिं सई उहाविउ, नयहि मुहदसणसुहु पाविउ । किर प्रासीस देइ सुहवारिसिं ताम निरखवाय अइहरिसिं । उच्चलिवि मुहकमलु निउंजइ सन्नई पवरासीस पउंजइ । निम्मच्छरण करिवि नियपुत्तहि, वहइ खीर चउवीसहि सुत्तहिं । सुहमंगलजलकुंभ सम्वारिय, दहिवुव्वक्सय सिरि संचारिय। चंदणदणाई मंगल्लइ एम सइंमि कीयइं सुमहल्लई। 9.7 कवि ने 'चिन्ता', 'उत्साह', 'प्राशंका', 'तिरस्कार', 'निर्वेद', 'ग्लानि', 'विषाद', 'कृतज्ञता', 'पश्चात्ताप' आदि संचारियों से सहवर्तित तथा 'अश्रु' 'वैवर्य' आदि सात्त्विक भावों से अनुभावित 'प्रवासगत वात्सल्य' का एक 'स्मृति चित्र' तब उकेरा है जब हमारा प्रमुख पात्र अपने स्वजनों के साहचर्य के लिए चंचल दीखता है सा नियजम्मभूमि सुमरंतउ नियजणेरिवच्छल्लु सरंतउ । परिचितइ परिवढियसोएं, काई एण महुतणई विहोएं। अच्छइ नरणणि कहिमि दुक्खल्लिय बहुदुज्जरणदुग्वयहि सल्लिय । जाइं सुइर चितविउ सुप्रासइं पुत्तजम्मदोहलयपियासई । नवमासहि नियकुक्सिहिं परियउ, पुणु रउरवकालहो नीसरियउ । नियसरीरीरि परिपलिउ अणुविण पियवयहिं दुल्लालिउ । ताहि कयाइ न मइं किउ चंगउ, प्रायउ दुक्खें पूरिवि अंगउ । एउ चितंतु कत दुव्वयरण पिक्खिवि भंसुजलोल्लियनयणउ । सई वत्थंचलेण पियकंतए लुहिय नयण तरलावियनित्तई। नोसासु मुएवि किउ विच्छायउ मुहकमलु । संभरिउ कुडुबु ताए वि नयरिणहि मुक्कु जलु । 6.12 प्रवरप्पर पक्खालिय नयगई अवरुप्पर जंपवि पियवयगई। प्रवरप्पर नियमणु साहारिउ “सोय महाजलि" अप्पउ तारिउ । 6.13 एत्तिउ कालु जाउ सुहसंगउ एव्वहि नितु उम्माहिउ अंगउ । चिरुमुक्क रुप्रति जरपरिण परमसम्भावरय । सा मझ विनोइ कि जीवइ कि मरिवि गय । 6.14
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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